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जैन-सस्कृति का राजमार्ग व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । जो उत्पन्न होने व नष्ट होने के बावजूद भी ध्रौव्य (स्थिर) है, वह द्रव्य है। द्रव्य छ. वताये गये हैं। (१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय व (३) श्राकाशास्तिकाय-ये तीन द्रव्य अरूपी हैं तथा क्रमश: गति, स्थिति एव अवकाश प्राप्त कराने में सहायक होते हैं । गति व स्थिति मे सहायक तत्त्वो के सम्बन्ध मे तो विज्ञान भी अब मानने लगा है । (४) काल द्रव्य-वस्तुतः कोई द्रव्य नहीं है किन्तु प्रौपचारिक रूप से माना गया है। क्योकि भूतकाल बीत चुका, वर्तमान हमारे सामने है व भविष्य उत्पन्न होगा, अतः इसमे द्रव्य का लक्षण घटित नहीं होता। (५) जीव व (६) पुद्गल द्रव्य हैं ।
जीव या प्रात्म द्रव्य का वर्णन जैन दर्शन मे प्रतिस्पष्ट एव असंदिग्ध रूप से किया गया है। जीव की पर्याय अवस्थाएं बदलती रहती हैं अतः उसका पूर्व पर्याय की दृष्टि से विनाश होता है व नवीन पर्याय की दृष्टि से विनाश होता है व नवीन पर्याय की दृष्टि से नई उत्पत्ति, परन्तु इन पर्यायो के परिवर्तन के बावजूद भी अपने रूप मे प्रात्मा ध्रौव्य रूप मे रहता है। जैसे एक सोने के कडे को तुडवाकर हार बनवाया तो सोना कडे रूप पर्याय से नप्ट हुअा वह हार रूप पर्याय मे उत्पन्न , परन्तु स्वर्णत्त्व की दृष्टि से वह ध्रौव्य रहा । पर्यायो मे प्राकृति का रूपान्तर होता है, मूत स्वरूप मे तो एकता ही विद्यमान रहती है। दूसरे वेदान्त मान्यता की तरह हमारे यहां प्रात्मा एक नही मानी गई है, किन्तु प्रत्येक प्राणी मे स्वतय प्रात्मा है तथा स्वतत्र ही उसकी अपनी अनुभूतियां भी होती है। यही कारण है कि प्रत्येक प्राणी अलग-अलग दुख या सुख का अनुभव करता है।
इसके सिवाय प्रात्मा मे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त शक्ति का अपार तेज रहा हुआ है, किन्तु यह तेज उसी तरह ढका हुप्रा है जिस प्रकार काले बादलो से ढक जाने पर सूर्य का ज्वलत प्रकाश भी छिप-सा जाता है। आत्मा की इन तेजमयी शक्तियो पर कर्म मैल की परतें चढी हुई हैं। ये कर्म मुख्य रूप से पाठ माने गये है। ये कर्म निल्य नहीं हैं। प्रात्मा जैसे कार्य करता है, तदनुरूप ही कर्मों का बन्ध होता है।