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शास्त्रो के चार अनुयोग
७७ है। साधु व श्रावक के ये पांचो व्रत एक ही है, सिर्फ त्याग की न्यूनाधिकता के कारण 'महा' व 'प्रण' विशेषण लगाये गये हैं। इन बारह व्रतो का स्वरूप इस तरह बनाया गया है कि इनका पालन समुचित रूप से एक राष्ट्रपति भी कर सकता है तथा एक अति साधारण गृहस्थ भी। चेडा महाराजा ने भयकर संग्राम करते हुए भी अपने वारह व्रत्तो को पूरी तरह निभाया पा। आज के नैतिक विशृंखलता के युग मे इन व्रतो के सम्यक् पालन से न सिर्फ योग्य एव नीति सम्पन्न नागरिको का ही निर्माण किया जा सकता है, वल्कि समाज की विभिन्न जटिल समस्याएँ भी बड़ी आसानी से इनके द्वारा सुलझाई जा सकती है।
कई लोग जैनो द्वारा वरिणत चारित्र्य धर्म को सिर्फ निवृत्ति व प्रवृत्तिफा ही रूप बताते है किन्तु जैन धर्म निवृत्ति व प्रवृत्ति-उभय रूपक है । प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का कोई अर्थ ही नहीं होता । प्रसत् से निवृत्ति करने के लिए सत् मे प्रवृत्ति करनी ही पड़ेगी । जैनागमो मे जहां बुराई के त्याग का वर्णन है, वही अच्छाई के प्राचरण का भी। 'कु' को 'सु' में बदल देना ही सच्चा माचरण है । जैन दर्शन मे सहजिक योगसुमति का वर्णन है, जिसका अर्थ ही है कि सम्यक् प्रकार से गति करना ।
इस तरह चरणकरणानुयोग मे दान, शील, तप, भावना रूप चारित्र्य का भी सागोपाग विस्तृत वर्णन किया गया है । वरिणत पार्चरण के अनुसार जो अपने जीवन को ढाल लेता है, उस प्रात्मा का चरम विकास सुनिश्चित बताया गया है । इस सारे पाचरण का मूल हमारे यहाँ विनय को कहा गया है-"विरगयो एम्नस्त मूलं"। इसका स्पष्टीकरण करने के लिए क्षमा, सन्तोप, नग्रता, सरलता, सयम प्रादि दश भेद बताये हैं। तप मे भी पराभ्यन्तर तप अर्थात् प्रायश्चित, विनय, ध्यान, सेवा, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय छः भेद तथा वाय-यनगन, ऊनोदरी, भिक्षाचरा, रस-परित्याग, कायालेग द प्रतिमलीनता-छः नेद बनाये गये हैं । इन सबके पाचरण से मात्मा का सुव्यवसिात दिलान सम्पादित होता है ।
मन्तिम चाया पनुयोग द्रव्यानुयोग है । द्रव्य का लक्षण है-"उत्पाद..