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जैन-संस्कृति का राजमार्ग धर्म का वर्णन है, किन्तु उन लोगो के लिए जो सासारिक क्षेत्र मे रहते और भोगते हुए भी अपने जीवन को मर्यादाशील बनाना चाहते है । श्रावक-चारित्र्य या प्रागार-धमं का वर्णन किया गया है ।
श्रमण या साधु चारित्र्य मे हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन व परिग्रह का मन, वचन व काया से सर्वथा परित्याग किया जाता है, बल्कि इन कार्यों के करवाने व अनुमोदन तक करने का भी निषेध किया गया है। ये इनके पाच महावत कहलाते हैं। इसी तरह श्रावक-गृहस्थ के लिये अपने नैतिक जीवन को सन्तुलित बनाये रखने के लिए बारह व्रतो का विधान है जिनमे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षावत कहलाते है। इनका अति सक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है५ अणुव्रत-१ निरपराध जीवो को उनके प्राणनाश करने के सकल्प से
न मारना व न त्रास देना। अपने प्राश्रित मनुष्य या पशु को भूखा रखना या उनकी शक्ति से अधिक काम लेना भी हिंसा मे ही सम्मिलित किया गया है । परन्तु अपराधी व सूक्ष्म जीवो का त्याग गृहस्थ को अशक्य होता है । २ सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय या दूसरो को कष्ट पहुंचावे
इस प्रकार भाषण नहीं करना । झूठी गवाह, झूठे दस्तावेज
या अन्य रूप मे मोटा झूठ बोलने का त्याग । ३. राजा या कानून दड दे या लोक निन्दा हो ऐसी चोरी न करना तथा बिना आज्ञा किसी भी चीज़ को उठाने का
त्याग । ४. स्वस्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ अनुचित सम्बन्धों
का त्याग अर्थात् मर्यादित ब्रह्मचर्य का विधान । ५. गुहस्थी की आवश्यकतानुसार धन, धान्य, सोना, चांदी,
भूमि श्रादि व व्यापार आदि से प्राप्त लाभ तक को भी ___ सीमित एव मर्यादित करना। । । पांच अणुव्रतो की रक्षा के लिए ही शिक्षा व गुणवतो का विधान