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शास्त्रो के चार अनुयोग
मे भी विवेकपूर्वक समझना चाहिए कि ये महापुरुप "प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' सिद्धान्त के महान् प्रचारक थे, वे कैसे निर्दोष प्राणियो के क्रूर हनन का विचार तक भी कर सकते हैं ? अस्तु मेरा तात्पर्य यह है कि जैन कथानको मे स्वाभाविकता व सैद्धान्तिकता का पूरा-पूरा निर्वाह किया गया है |
जैन कथा - साहित्य की एक-एक कथा जीवन विकास का ज्वलन्त रत्न है । गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर धधकते हुए श्रगारे रख दिये जाने पर भी जिस शान्ति व रखने वाले सोमिल ब्राह्मण के प्रति सद्भावना का उल्लेख है, वह निश्चय पाठक के हृदय में भी महान् क्षमा व सहनशीलता का भाव भरता है । हजार से ऊपर मनुष्यो को अपनी गदा से मोत के घाट उतारने वाला अर्जुन माली जब सुदर्शन की दिव्य श्रात्म-शक्ति के समक्ष पनी श्रात्म चेतना को सजग बना लेता है तो वह दृश्य किसे प्रपने भारीसे-भारी पतन से भी उठने की प्रेरणा न देगा ? चेड़ा महाराज व्रतधारी होते हुए भी प्रन्याय का प्रतिकार करने के लिए महान् सग्राम मे जू प हैं, यह कथानक कायरता को कहाँ स्थान देता है । इसी प्रकार श्रानन्द, आदि सद्गृहस्थो की व्यवहारिक प्रादर्शों भरी कथाएँ जीवन मे प्रगतिकारी क्रान्ति को जन्म देती है । सक्षेप में यही कहना है कि जैन कथाएँ जैनसरकृति को अपने यथार्थ रूप में पर अत्यन्त सरलतापूर्वक प्रदर्शित करती हैं । दूसरा अनुयोग है गणितानुयोग, जिसमे स्वर्ग, नरक, द्वीप, समुद्र आदि से सयुक्त चौदह राजू के विशाल लोक का विवरण है । गणित के इनके कठो को समझने के लिए आज हमारे में वह जानकारी न रही हो व मापतौल के भी पैमाने बदल गये हो वह दूसरी बात है, किन्तु जिस वारीक व विस्तार से सारे खगोल व भूगोल का ग्रांकडोपूर्वक वह प्राश्चर्य का विषय है । गणितानुयोग को कई बातें जगत् मे प्रकाश मे भाई हैं घोर जव तक ग्रन्य वातें सके, तब तक उनमे श्रविश्वास जाहिर करना थपने ही ज्ञान का प्रभाव साबित करना है | जैसे हमारे यहाँ उल्लेख है कि शब्द तीव्र गति वाले होते है । ध्वनि जो एक ने उच्चरित की है, वह सारे लोक मे फैलकर प्रतिध्वनित
वर्णन किया गया है, तो आज भी वैज्ञानिक
सत्य सिद्ध न की जा