Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 47
________________ कर्मवाद का अन्तर्रहस्थ "सुविधि जिनेश्वर वदिये हो, चन्दत पाप पुलाय..... " मनुष्य स्वय ही अपने व समाज के भाग्य का निर्माता है-इस तथ्य को जब-जब उससे भुला देने की कोशिश की गई, तब-तब मानव समाज मे शिथिलता व अकर्मण्यता का वातावरण फैला । किसी अन्य पर अपने निर्माण को प्राश्रित बनाकर विकास करने का उत्साह मनुष्य मे नही बन पड़ता, चाहे वैसा पाश्रय खुद ईश्वर को ही सौपा गया हो । मनुप्य गतिशील प्राणी है और जहाँ भी उसे गतिहीन बनाने का प्रयास किया गया कि उसका विकास रुक गया। मनुष्य स्वय ही पर आश्रित रह सकता है, किसी अन्य पर उसे प्राश्रित दताकर उसको गतिशील नही बनाया जा सकता है। सुविधि जिनेश्वर को की गई पर्युक्त प्रार्थना मे भी इसी तथ्य को प्रकाशित किया गया है कि रवय प्रात्मा ही अपने पुरुषार्थ से विकास करता हुमा परमात्म पद को प्राप्त करता है। ईश्वरत्व कोई ऐसा अलग पद नहीं है, जहाँ कभी भी प्रात्मा की पहुँच न हो या ईश्वर ही धरती पर अवतार लेकर महापुरुष के रूप मे जगदुद्धार करता है तथा साधारण प्रात्मा को वह राती नहीं, ऐसी मान्यता जैनधर्म नहीं रखता। वह तो हर प्रात्मा पी महान शक्ति में विश्वास करता है । जैन दृष्टि के अनुमार अात्मा ही परमात्मा बन जाता है, भवत रदय भगवान बन कर दिव्य स्थिति को प्राप्त पार लेता है घोर पाराधका एक दिन प्राराध्य के रूप में अपने उच्चतम विरप को ब्रहण फारता है और जनधर्म के इस प्रगतिशील विकासवाद का मूलाधार तिसान है, वर्मवाद का सिरान्त । भारत की नैयायिक, वनेपि, नाग्य, पौराणिक, योग प्रादि अन्य नभी दानि परम्प ए मा गैर परमात्मा के बीमौलिक भेद को ती"- बरती जानना है कि पात्मा विकास करता है, निवारण

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