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जैन- संस्कृति का राजमार्ग
जहाँ हम व्यक्ति का चरित्र ऊँचा उठाना चाहते हैं, उसे नीतिमान् व संभवशील बनाना चाहते हैं, वहीं इस व्यवस्था में वह सभी प्रकार से श्रनंतिक और असमी बनने के रास्ते पर दोडने लगता है तब भगवान महावीर की गृहस्थों के लिए नियोजित श्रणुव्रत व्यवस्था की उपयुक्तता एव सत्यता और अधिक स्पष्टता से निखर उठती है । महावीर ने मूल रोग ममत्व को पकड़ा और यदि ममत्त्व को इस प्रकार मर्यादित कर दिया जाय व इसे निरन्तर घटाते रहने का क्रम बनाया जाय तो निश्चित रूप से समाज मे एक कुटुम्ब का सा भ्रातृत्त्व व समता का भाव फैलेगा तथा धर्म के क्षेत्र मे निष्काम निवृत्तिवाद का प्रसार होगा जिसका उपदेश भगवान महावीर ने दिया । इसलिए सम्पत्ति पर स्वामित्त्व घटे और हटे, तभी शुद्ध मानो में जाकर ममत्त्व बुद्धि का सफाया हो सकता है । साधु जीवन एक तरह उस आदर्श का चित्र है जहाँ किसी भी प्रकार को सम्पत्ति पर उसका किसी भी रूप मे स्वामित्व नहीं होता और इसीलिए उसके लिए किसी भी पदार्थ पर ममत्त्व रखना वर्ज्य है बल्कि स्वय हो स्वामित्त्व के अभाव मे ममत्त्व बुद्धि के श्राने का रास्ता ही बन्द हो जाता है । यह तो दुनिया मे चारो और देखा जाता है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वामित्त्व होने से सेकडो प्रकार से कलह एव झगडो की उत्पत्ति होती रहती है । सम्पत्ति के नाम पर भाइयो का वैमनस्य देखा जाता है, भागीदारो से कलह पैदा होते है और पडोसियो से झगड़े होते रहते हैं । कभी-कभी तो एक-एक इच भूमि के लिए निकटस्थो के सर फूटते देखे जाते है । सारा समाज एक कुटुम्ब क्या बने, उनका एक छोटा-सा घटक, श्राज का कुटुम्ब भी इस व्यवस्था मे सयुक्त और सशान्ति नही रह पाता । इस सारी विषमता और कलुपितता से त्राण पाने का एवं समाज सुव्यवस्था के साथ श्रात्मा की उन्नति करने का अबाध मार्ग है । भगवान महावीर का अपरिग्रहवाद जिसकी ओर श्राप लोगो का ध्यान जाये और उस मार्ग पर चलें तथा इसका प्रकाश सारे ससार मे फैलाएँ । यह
भाज युग की माँग हो गई है ।
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"अहिंसा परमोधमं का पालन भी विना अपरिग्रह के स्वस्थ रीति