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परिवाद याने स्वामित्व का विसर्जन
दुराचारी का पोषरण करना ।
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यह एक समूचा चित्र मैंने रखा है कि श्रावक को भी परिग्रह को परिमित करने के लिए भगवान ने प्रतिवन्धित किया है— साधु तो पूर्णतया प्रतित है ही । श्रादक पर भी जो वारिक मर्यादाएँ ऊपर बताई गई है, उनको महत्व पर विचार करना जरूरी है ।
भगवान महावीर के प्रपरिग्रहवाद की गहराई मे घुसकर देखा जाय ती प्रतीत होगा कि वहां व्यक्ति और समाज दोनो को सन्तुलित करने का विचार दिया गया है । गमाज मे विषमता, घोषण एव धन्याय की जननि बुद्धि है जो दूसरी तरफ व्यक्ति के चरित्र और प्रध्यात्म को भी नीचे पिगती है। जिन समाजवादी सिद्धान्त की कल्पना की जाती है, वह भी क्या है - एक तरह ने नमाज मे सम्पत्ति, धनधान्य एव उपभोग परिभोग की श्रीमान गप से मर्यादा दधने की ही तो बात है जो महावीर निर्देश पर गये है ।
यह है कि जब साधन सामग्री का नियमन क्रिया जाय तो निचित है कि उनका कम हाथो मे नह नहीं होगा बल्कि वही सम्पत्ति सामी हाथो मे विसर जायगी। जीवन निर्वाह के लिए घोकायता नही होती है, वह तो होती है सग्रह के लिए । इसलिए ही समाज मे सारी बुराइयों पैदा करता है - एक और तो गका पर दूसरी और जोगीं मोरटी की दरिद्रता देश और दमता की उप इससे सबने बड़ी हदे व्यक्ति जो यानी कुटिल रहते हैं,
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