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अपरिग्रहवाद याने स्वामित्त्व का विसर्जन से करना सभव नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने भी जब दीक्षा ली तो उन्होने सारे वस्त्राभरण त्याग कर अपने शरीर पर एक मात्र वस्त्र ही रखा था, उसे भी बाद मे त्याग दिया । क्या भगवान महावीर आपसे कम सुकोमल थे? अरे, वे तो राज्य के महान् वैभव मे अपार सुख-सुविधाओं के बीच रहने वाले राजकुमार थे, फिर भी कोई ममत्त्व उन्हे बाँध नहीं सका और
आप कहते हैं कि 'हमारा निभाव सम्पत्ति के बिना कैसे हो?" पर मैं पूछता हूं कि क्या वहिने मोती के हार पहने विना जीवित नहीं रह सकती, जो सैकडो घोघो को मारकर प्राप्त किये जाते है ? रेशमी और सुन्दर वस्त्रो को जगह यदि खादी पहनी जाय तो क्या शरीर क्षय हो जायगा ? बडे-बडे बंगलो की बजाय झोपडी का प्रानन्द लिया जाय तो वह निराला होगा। प्राप एक ओर बडी बडी तपस्याएँ करते हैं और दूसरी ओर परिग्रह के पीछे पडे रहते हैं । क्या यह उस तपस्या को लज्जित करना नहीं है ? निष्परिग्रही महावीर के अनुयायी गरीबो का खून चूसते रहे । यह स्वय महावीर को लज्जित करने जैसा कार्य है।
मैं प्रापको गम्भीरता से कहना चाहता हूँ कि आप अधिक न बन सकें तो कम-से-कम यह प्रतिज्ञा तो आज के दिन अवश्य करें कि आप किसी पर मुकद्दमा नही करेंगे और भोछी सम्पत्ति के कारण अपने भाइयो के बीच मे कलह का बीज कतई नही बोएंगे। मैं आपसे पूछू, राम का नाम क्यो प्रसिद्ध है ? क्या वे दशरथ के पुत्र थे इसलिए ? नही, उससे बड़ी बात की उन्होने अपने जीवन मे कि वे अपने भाई के लिए सारा राज्य त्याग कर वन मे चले गये । महावीर और राम जैसे महापुरुषो की जयन्ती समारोह मनाना तभी सफल माना जा सकता है, जब उन महापुरुषो के जीवन के प्रादर्शो को अपने जीवन मे उतारें वरना ये समारोह वगैरा मनाना सव नाटक रूप माना जायगा और इनसे अपनी आत्मा मे कोई जागरण पैदा नही होगी।
प्राज के साम्यवाद, समाजवाद अपरिग्रह सिद्धान्त के ही रूपान्तर हैं। यदि चेत् अपरिग्रह का क्रियात्मक रूप जैनी भी अपने जीवन मे उतारें तो वे अपने जीवन मे तो मानन्द का अनुभव करेगे ही-साथ ही सारा दुनिया में