Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 60
________________ ५८ जैन-संस्कृति का राजमार्ग ग़लतियाँ तभी मिटेंगी जब माप लोग जैन सिद्धान्तो का विशिष्ट प्रचार करके उनके सही स्वरूप को लोगो के सामने प्रकाशित करोगे । जयन्ती समारोह के 'दिन इस समस्या को विशेष रूप से दिल मे उतार कर समाधान निकालना • चाहिए। यह एक निरी आस्था की बात नहीं, ऐतिहासिक चक्र की गति है कि जब-जब चारो ओर विकृतियां फैलती हैं, समाज में गिरावट फलती है तो उसके विरुद्ध एक क्रान्ति भी भडकती है और वही क्रान्ति घनीभूत होकर युग पुरुष की रचना करती है । "यदा यदाहि · " का एक दृष्टि से यही रहस्य है । भगवान महावीर के जन्म के पहले की स्थितियां भी कुछ ऐसी ही 'विकृति हो चली थी। ब्राह्मणो का जीवन ऐश्वर्य से विलासी हो गया था, "वैदिकी हिंसा हिसा न भवति" का नारा लगाकर धर्म के मूल गुणो को "भूल रहे थे तब एक क्रान्ति के रूप मे महावीर अवतरित हुए। हमने अभी 'प्रार्थना की-''शान्ति क्रान्ति कर धीर" के अनुसार उन्होने शान्ति क्रान्ति करके समाज मे एक परिवर्तन पैदा किया और एक तरह से ब्राह्मण वर्ग के स्वयंभू दमन के विरुद्ध उन्होने जन-जन की आत्मा को जगाया कि आत्मा ही अपने सुख दुःख का कर्म है, वही अपना मित्र और शत्रु है अप्पा कत्ता विफत्ताय, दुहारण्य सुहागय । अप्पा मित्त ममित्तं च, दुप्पडियो सुघड़ियो । उस युग मे कुछ लोगो के ऐश्वर्य एवं विलासिता तथा बहुजन के दुख को देखकर महावीर विकल हो उठे। उन्होने अपने कल्याण के लिए दूसरो की दासता छोड़कर अपनी ही आत्मा को जागृत करने और बलवती बनाने की प्रेरणा दी। जैनधर्म को महावीर ने जो स्वरूप दिया, वह मुख्यत. प्रवृत्ति-कारक नहीं होकर, निवृत्तिवादी था । उन्होने बताया कि जीवन नश्वर है और इस नश्वर जीवन मे यदि कोई वृत्ति समस्त दुःखो का मूल है तो वह है ममत्त्व वृत्ति, गृह दृष्टि । जीवन मे यदि पैनी दृष्टि से देखा जाय तो परिस्थितियां या कि पदार्थ सुख या दुख नही देते बल्कि सुख-दुख देती है वह दृष्टि जो उन

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