Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ ६२ जैन-संस्कृति का राजमार्ग उल्लेख पायगा तो उसे सोचना होगा कि पिछले समय में इन पांचो प्रतिनायो मे से कही वह चूक तो नहीं गया है, कही उसने निर्धारित मर्यादा से अधिक किसी भी प्रकार की सम्पत्ति तो नही बढा ली है। यह रोज रोज की नियत्रण उसकी तृष्णा को नियंत्रित कर देता है और सम्पत्ति के स्वामित्त्वममत्त्व से उसको मुक्त करता जाता है। उसका दूसरा कर्तव्य यह होगा कि जब-जब भी उसे अपरिग्रही निग्रंथ साधुग्रो का समागम होगा तो उसकी ममत्त्ववृत्ति अधिकाधिक घटती जाय, इस प्रोर उसे ध्यान देना होगा। परिणाम यह होगा कि वह अपने निर्वारित परिणाम को घटाता जायगा। कल्पना कीजिये कि उसने धन-धान्य में दस हजार की सीमा बनाई तो वह धीरे-धीरे पांच और दो की ओर चलता जायगा। इस क्रम का असर यह होगा कि एक ओर तो उसका प्रपच कम होगा, उसका आत्मा अधिकाधिक विकास की ओर उन्मुख होगा और दूसरी ओर समाज मे सम्पत्ति का सचय घटकर विकेन्द्रीकरण वटता जायगा। ___भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए इतनी ही सीमा बनाकर सन्तोष नही किया वरन उन्होने उपभोग-परिभोग खाने-पीने में काम आने वाली वस्तुप्रो पर भी मर्यादा बनाने का उल्लेख किया व श्रावक के धन्धो के सम्बन्ध मे भी १५ कर्मादान से प्रतिबन्ध लगाएं जिनका उल्लेख ७वे अगुव्रत में किया गया है। सातवा व्रत है-उपभोग, परिभोग, परिमाण, व्रत । इसके २६ बोल आपको इसलिए गिनाना चाहता हूँ कि आप अपरिग्रहवाद की सूक्ष्मता तक उतर कर इन मर्यादाग्रो मे छिपे गभीर सामाजिक व आत्मिक महत्व को यथाविधि समझ सके । इस व्रत के २६ बोल इस प्रकार है-(१) उल्लरिणयाविहं- अगोडा टवाल आदि के प्रकार और माया की मर्यादा करना (२) दन्तण विह-दांतुन करने की सामग्री की मर्यादा करना (३) फलविहं-फल के प्रावाना आदि फल की मर्यादा करना (४) अन्नगराविहतैलादि की मालिश करने के लिए मर्यादा करना (५) उवाविहंउवटन की ( पीठी ग्रादि ) मालिश की मर्यादा करना (६) मजरणविह

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123