Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 62
________________ ६० जैन-सस्कृति का राजमार्ग वट मे दुनिया का स्वरूप कैसा " त्राहि माम् त्राहि माम्" हो जाता है उसका अनुभव मैं समझता हूँ वर्तमान व्यवस्था मे श्रापको हो रहा होगा । इसीलिए भगवान महावीर ने अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त पर विशेष प्रकाश डाला और निवृत्ति प्रधान मार्ग की प्रेरणा दी। उन्होने साधु व गृहस्थ घर्मो के जो नियम बताये वे इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । साधु के लिए तो उन्होने परिग्रह का सर्वथा ही निषेध किया, उसे निर्ग्रय कहा | पंचम महाव्रत से साधु अपने पास कोई द्रव्य नही रख सकता तथा वस्त्रादि जो भी रखता है वह भी केवल शरीर रक्षा की दृष्टि से याकि लोक व्यवहार से, वरना उसमे वह जरा भी ममत्त्व नही रखे । साबु को इसीलिए कुछ पदार्थ रखते हुए अपरिग्रही कहा है कि उसका उनमे ममत्त्व नही होता और ममत्त्व क्यो नही होता कि उन पदार्थों पर वह अपना स्वामित्व नही मानता । वे पदार्थ वह भिक्षा द्वारा प्राप्त करता है । साधु के लिए तो भगवान ने कहा कि उसको अपने शरीर मे भी ममत्त्व नही होना चाहिए इसीलिए जैन साधु का जीवन जितना सादा, जितना कठोर श्रीर जितना त्यागमय वतलाया गया है । उसकी समता अन्यत्र कठिनता से देखने मे आवेगी । तो भगवान महावीर ने साधु जीवन को कतई परिग्रह से मुक्त रखा ताकि वे गृहस्थो मे फैले परिग्रह के ममत्व को घटाते रहे । किन्तु गृहस्थों के लिए जो १२ व्रत उन्होंने निर्धारित किये उनमे परिग्रह नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है । सिर्फ श्रपरिग्रहवाद की पुष्टि के लिए पांचवा श्रणुव्रत स्थूल परिग्रह विरमण व्रत तथा सातवा उपभोग परिभोग परिमाण विरमरण व्रत, दो व्रत रखे गये है । अन्य किसी विषय पर इतना जोर नही दिया गया है जितना कि परिग्रह से दूर हटने के विषय पर और इसका स्पष्ट कारण है कि परिग्रह याने मूर्च्छा रूप स्वामित्व ही नये-नये पाप कर्मों की रचना करता है और समाज मे विकृतियाँ व अन्याय गत प्रवृत्तियाँ फैलाता है । मैं सामाजिक व सयम जीवन पर अपरिग्रहवाद के शुभ प्रभाव को

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