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जैन-संस्कृति का राजमार्ग कहा गया है । प्रास्रव का निरोध सवर है । सम्यक् जान, दर्शन व चारित्र्य की शक्तियो से प्रात्मा के विकार-कर्मों को दूर करना चाहिए ताकि आत्मा कर्म मुक्त होकर अपने मूल रूप की ओर गति कर सके।
इस तरह जैन धर्म का कर्मवाद सिद्धान्त मानव को अपना निज का भाग्य स्वतः ही निर्माण करने की प्रेरणा देने के साथ ही उसे जीवन की ऊंची-नीची परिस्थितियो मे शान्ति, उत्साह, सहनशीलता और कर्मठता का जागरूक पाठ पढाता है। अपने पर छा जाने वाली आपत्तियो के बीच भी वह उन्हे अपना ही कर्मफल समझकर शान्तिपूर्वक सहन करने की क्षमता पैदा करता है तथा उज्जल भविष्य के निर्माण हित सद्प्रयत्नो मे प्रवृत्त हो जाने पर दृढ़ निश्चय कर लेता है। कर्मवीर को मानकर वह पूर्वकृत कर्मो के फल को अपने कर्ज चुकने की तरह स्वीकार करता है । कर्मवाद के जरिये मनुष्य मे स्वावलवन व प्रात्म विश्वास के सुदृढ भाव जागृत होते हैं और यह इस सिद्धान्त का सब से बडा व्यवहारिक मूल्य है।
कर्मवाद का यही सन्देश है कि जो स्वरूप परमात्मा का है, वही प्रत्येक प्रात्मा का है, किन्तु उसे प्रकटाने के लिए विजातीय-भौतिक पदार्थों से मोह हटाकर सजातीय आत्मिक शक्तियो को प्रकाशित करना होगा। सुविधिनाय की प्रार्थना का यही सार है कि अपने चरम सजातीय परमात्मा से प्रेम करके एक दिन यह प्रात्मा भी कर्मबन्ध से विमुक्त होकर उनके सदृश स्वरूप ग्रहण कर ले। स्थानदिल्ली