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कमवाद का अन्तर्रहत्य इसलिए ईश्वर की रचना नहीं। सृष्टि तो स्वत. परिणमनशील है । जीव प्रोर जड के संयोग से इसकी गति चलती रहती है और यह सयोग ही विभिन्न कर्तव्याकर्त्तव्य का कारण तथा तदनुसार फलाफल का परिणाम होता है। तो इस सृष्टि की गति मे प्रात्मा पर प्रावरण चढता जाता है और उसी आवरण को धीरे-धीरे साधना के बल पर जब काटना शुरू किया जाता है तो एक दिन वही प्रात्मा अपनी विशुद्ध स्थिति में पहुंच जाता है एव वही विशुद्ध स्थिति मुक्त या ईश्वरत्व की स्थिति है। ___तो हमने देखा कि संसार मे गति करते हुए जीवात्मा अपने विशुद्ध स्वरूप मे हका हुआ रहकर उससे विस्मृत व विशृखलित-सा बन जाता है और उसकी इस विशृखलता की स्थिति के साथ ईश्वर का कोई सम्बन्ध नही होता । श्रत यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उस विशृखलता को बनाने और मिटाने दाली कौन शक्ति है ? दास्तव मे वह शक्ति तो चेतन ही है किन्तु उस दिग्वलता का लेखा-जोखा बनाये रखने वाले जड़ कमपुद्गल होते हैं, जिनके शाधार पर जीवो को उनके कार्यों का यथावत् परिणाम मिलता रहता है। इस तरह यह कर्मवाद का सिद्धान्त चेतन को कर्मण्यता व प्रात्म-निष्ठा की प्रोर सजग रखता है किन्तु उसके साथ ही कर्मपुद्गलो के बन्ध का विश्लेपण वारके उसकी मजगता को स्थायी बनाये रखना चाहता है । अपना प्रकर्तव्य कभी भी मिट नही जायगा, बल्कि प्रावरण की एक परत वनकर श्रात्मा के गुर स्वर प को घेरता रहेगा और जब तक एक-एक करके वे प्रावरण की सब परतें न कट जायेंगी, प्रात्मा अपने विशुद्ध स्वरूप मे नही पहुंच सना, ऐसी विचारणा ने व्यक्ति के प्रपने कागें मे एक पोर जहां मन्तुतन व सयमन भाता है, वहां उसी मात्रा मे कर्मण्यता का उत्साह व पुरुषार्थ पी प्रदीपता भी छा जाती है।
फर्मवाद की विचारणा के छे जो मजबूती है, वह स्वतः प्रेरित पल्वाद की धारणा है। मगर फलवाद का कार्य ईश्वर पर छोडा जाय,
सा वि अन्य दर्शन मानते है तो दही प्राधित अवस्था पैदा हो जाने पर मनुष्य में से रवाध्य का भाव जाता रहेगा और तदुपरान्त प्रगति की भोर
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