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जैन-संस्कृति का राजमार्ग और उन्हे विशिष्ट रूप देता है, जिन्हे द्रव्यकर्म या कामणि शरीर कहा जाता है। जीव की रागद्वेष रूप जैसी परिणति उस समय होती है, उसके अनुसार उन भौतिक सूक्ष्म परमाणुप्रो मे कर्मफल देने वाली शक्ति उसी प्रकार पैदा होती है जिस तरह संघर्षण से विद्युत । ऐसी कर्मफल शक्ति युक्त कामरिण वर्गणा को 'कर्म' कहते हैं । प्रात्मा इन सूक्ष्म परमाणुओ को अपनी
ओर उसी तरह आकृष्ट करता है जिस प्रकार ब्रॉडकाटिसा स्टेशन पर बोले गये शब्दो को बिजली के जरिये फेंके जाने से वे सारे वायुमण्डल से सम्बद्र हो जाते हैं। प्रत्येक क्रिया का उसके आसपास के वातावरण मे असर होता है जीव भी जब मन, वचन या काया से कोई क्रिया करता है तो उसके समीपवर्ती वातावरण मे हलचल मचती है और कामणि वर्गणो के सूक्ष्म परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते है। इस तरह यह कर्मवाद की प्रक्रिया का क्रम चलता है।
इस प्रक्रिया द्वारा जो पुद्गल प्रात्मा से सम्बद्ध हो जाते हैं, वे ही जीव को शुभाशुभ फल का सवेदन कराते हैं तथा जब तक ये सम्बद्ध रहते हैं, श्रात्मा को मुक्ति की ओर प्रयाण करने से रोकते हैं । एक योनि से दूसरी योनि मे भी प्रात्मा को ये ही भटकाते हैं तथा ये ही बादल बनकर प्रात्मा के सूर्य को आच्छादित किये रहते हैं।
कर्मवाद का यह सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन की ही मौलिक देन है । अन्य दर्शनी मे जन्मजन्मान्तर की परम्परानो का वर्णन है किन्तु कार्मण शरीर की सूक्ष्म मान्यता अन्यत्र नहीं मिलती। हां, वेदान्त मे माना गया लिंग शरीर व न्याय वैशेषिक परम्परा का अणु रूप मन इमी मान्यता की प्रस्पष्ट छाया अवश्य है । जैन साहित्य मे कर्म प्रवृत्ति की प्रमुफ काल तक फल देने की शक्ति, फल देने की तीव्रता या मन्दता और यात्मा के साय बंधने वाले कर्म परमाणुप्रो का प्रमाण जिन्हे पारिभाषिक शब्दो मे प्रकृति बघ, स्थिति बंध, अनुभाग वध और प्रदेश वध कहते है श्रादि का बडा ही गहग विशद् वर्णन विया गया है, जिन्हे समझने के लिए काफी विस्तार की आवश्यक्ता होगी।