Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 51
________________ ४६ कर्मवाद का अन्तर्रहस्य तरह के कार्य करता है किन्तु वह बुरे कर्मों का फल भोगना नही चाहता, प्रत ईश्वर न्यायाधीश के समान उसे उचित फल देता है और न्यायव्यवस्था को कायम रखता है। किन्तु इस तर्क मे भी कोई बल नही है । क्योकि यदिरा पीना तो मनुष्य के हाथ था, किन्तु पीने के बाद उसके प्रभाव को भुगतना पडता है । तेल मर्दन किया हुआ व्यक्ति वालूकणो मे न बैठे तब तक उसके वश की बात पर बैठने के बाद तो वे करण चिपक ही जायेंगे। उसी तरह कर्म करने मे प्रात्मा स्वतन्त्र है किन्तु स्वत. चालित प्रणाली हारा यदि निकाचित् कर्मबन्ध हो जाय तो उसके फल को न रोका या निकचित् की अपेक्षा वदला ही जा सकता है। अपने आप काम करने वाली तौलने की मगीन मे 'पाप इकन्नी डाल देंगे तो वाद मे तो तोल का टिकट बाहर निकल ही जायगा, उसे रोका नहीं जा सकता । इकन्नी न डालना वह दूसरी बात थी, लेकिन डालने के बाद तो उस डालने वाले का भी कोई वया नही रहता, उसमे से टिकट निकल ही पडेगा । अतः कर्म करने के बाद प्राणी को 'Sclf reguleter' की तरह जो किया है, उसका यथावत् फल पाना ही पडेगा। परन्तु जिस तरह अपने आप काम करने वाली तोलने पी मशीन पर किसी मगीनमैन को बिठाने की ज़रूरत नही रहती, वह तो अपने पाप ही काम कर लेती है, उसी प्रकार जब स्वतःप्रेरित व्यवस्था से पाणी को अनिवार्य रूप से अपने कर्मो का यथावत् फल प्राप्त हो जाता है तो न्यायाधीश का रूप लेकर ईश्वर को बीच मे पाने की कोई आवश्यकता नही रहती । कर्मफल के इस व्यवस्थाक्रम मे जीव और जडकर्म के अतिरिक्त सौर किसी की भी अपेक्षा नहीं है । स सम्बन्ध गे एक और का उठाई जाती है कि कर्म तो पोद्गलिक , जर , नगे फल देने की भक्ति कहाँ से प्राई ? उसके लिए तो चेतन राग्ति चाहिए प्रौर एसलिए फलदान का प्राधार ईश्वर को ही मानना पगा।लकाका सगाधान भी ऊपर हो के विश्लेपण से हो जाता है। कार्ग च्य जर है, यह सही है किन्तु जब उन। सम्पर्क जीव के साथ होता तो ना सम्पनी ऐनी नक्ति पैदा हो जाती है जिसके कारण वे

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