Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ ४२ जैन-सस्कृति का राजमार्ग समाज का मस्तिष्क सन्तुलित व समन्वित हो सकेगा और तभी वह अपनी वर्वरता के पिछले इतिहास को हमेशा के लिए भला सकेगा। अाज इस तथ्य मे कोई सन्देह नहीं कि विचारो की हिंसक प्रतिद्वन्द्विता के कुपरिणामो को ससार अनुभव भी करने लगा है और उसके फलस्वरूप चाहे नेता लोग न चाहते हुए भी बोल रहे हो, पर कहा जा रहा है कि साम्यवाद व पूंजीवाद दोनो विचार प्रणालियां शान्तिपूर्वक एक साथ चलकर अपनी-अपनी व्यवस्थाएं कायम रख सकती है। यह अनुभूति इस सत्य की ज्वलन्त प्रतीक है कि अव मनुष्य विचारो के दुखद संघर्ष को सहन करते रहने की स्थिति में नही है और इसलिए मानव समाज को अब स्याद्वाद के समन्वयवादी व अपेक्षावादी सिद्धान्त की ओर झुकना ही होगा । यही सत्य को साक्षात करने का रास्ता है और इसी मे मानव जाति के शान्तिपूर्ण 'विकास का रहस्य छिपा हुआ है । स्याद्वाद के सिद्धान्त को जैनदर्शन का हृदय कहा जाता है । जैसे हृदय शुद्ध किया गया सभी अंगो मे समान रूप से सचारित करता न रह सके तो शरीर का टिकना कठिन ही होगा। उसी तरह स्याद्वाद सभी सिद्धान्तो को समझने में समन्वय की उदार भावना की बराबर प्रेरणा देता रहता है। जैनदर्शन की सबसे बडी विशेषता तो यहां है कि वह अपनी मान्यता के प्रति भी हठवादी (दुर्नयी) नही है। वहीं तो सत्य से प्रेम किया जाता है और निरन्तर अपने स्वरूप को सत्य के रग मे रगा रखने मे परम सन्तोप की पनुभूति की जाती है । सत्य की प्राराधना जैनदर्शन का प्राण है। वह न अपनी मान्यता के विषय मे दुराग्रही है और न दूसरो की मान्यताप्रो का किसी भी रूप मे तिरस्कार करना चाहता है। वह तो केवल यह चाहता है कि समस्त विश्व पूर्ण सत्य के स्वरूप को समझने के सही राह पर ही आगे बढे। स्यादाद एक तरह से ससार के समस्त विचारको व दार्शनिको का आह्वान करता है कि सब अपने प्रापसी हठवाद व एकागी दृष्टिकोणो के शलह को त्याग कर एक साथ बैठो तथा एक दूसरे की विचारधाराओ को

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123