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जैन - संस्कृति का राजमार्ग
चाहे वह ग्रथि जड द्रव्य-परिग्रह मे हो, कुटुम्ब, परिवार में हो या काम, कोच लोभ, मोहादि मनोविकारो में हो - यह ग्रंथि हो नित नवीन कष्टों का सृजन करती है । इसीलिए महावीर ने दृढता मे ग्राह्वान किया
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" पुरिसा, प्रत्ताण मेव प्रभिणिगिज्ज्ञ एवं दुक्खा पोक्खसि ।" -- श्राचाराग सूत्र, प्र० ३, सूत्र १६
हे पुरुषो । आत्मा को विषय ( कामवासनाओ ) की ओर जाने में रोकी, क्योकि इमी से तुम दुःखमुक्ति पा सकोगे ।
समस्त जैनदर्शन महावीर की इसी पूर्ण स्वाधीनता की उत्कृष्ट भावना पर आधारित है । परिग्रह के ममत्व को काटकर संग्रहवृत्ति का जब त्याग किया जायगा तभी कोई पूर्ण अहिंसक श्रौर पूर्ण स्वाधीन बन सकता है । ऐसी पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना हो जैनधर्म का मृतभूत ध्येय है । स्वाधीनता ही ग्रात्मा का स्वधर्म अथवा निजी स्वरूप है ।' मोह, मियात्व एव अज्ञान के वशीभूत होकर ग्रात्मा अपने मूल स्वभाव को विस्मृत कर देती है और इसीलिए वह दासता की शृंखलाओं में जकड जाती है । आज गणतंत्र की स्वाधीनता पहले आत्मा की स्वाधीनता को जगाए, ताकि आत्मा की स्वाधीनता जागृत और विकसित होकर गरण की स्वाधीनता को सुदृढ एवं सुचार बना सके ।
ग्रात्मा की पूर्ण स्वाधीनता का अर्थ है- धीरे-धीरे सम्पूर्ण भौतिक पदार्थ एव भौतिक जगत से सम्बन्ध-विच्छेद करना । अन्तिम श्रेणी मे शरीर भी उसके लिए एक बेडी है, क्योंकि वह ग्रन्य आत्माओ के साथ एकत्व प्राप्त कराने में बाधक है । पूर्ण स्वाधीनता की इच्छा रखने वाला विश्वहित के लिए अपनी देह का भी त्याग कर देता है । वह विश्व के जीवन को ही अपना मानता है, सबके सुख-दुख मे ही स्वय के सुख-दुख का अनुभव करता है, व्यापक चेतना मे निज की चेतना को मजो देता है । एक शब्द मे कहा जा सकता है कि वह अपने ' व्यष्टि को समाप्टि में' विलीन
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