Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 27
________________ महावीर को सर्वोच्च स्वाधीनता है कि वहां एक भारतीय अपनी इच्छा के फल न मिलने के कारण जापान के प्रति निन्दात्मक वाते कह रहा था, जिसे एक गरीब जापानी ने सुन लिया। पह बडा विक्षुब्ध हुआ और कही से खोज-खाजकर वह फलो की टोकरी ले प्राया और उसने उस भारतीय को दे दी । भारतीय जव उसे दाम देने लगा तो उसने बडा मार्मिक जवाब दिया-महाशय, मुझे पैसा नही चाहिए, देश का मान हमारे लिए बडा है, जन्मभूमि का सम्मान हमे अपने जीवन से भी अधिक प्यारा है । आपसे इन फलो की मैं यही कीमत मांगता हूँ कि आप अपने देश में जाकर मेरे देश जापान को किसी प्रकार निन्दा न करें। राष्ट्र के प्रति व्यक्त किया जाने वाला यह सम्मान देशवासियो मे गौरव का भाव उत्पन्न करता है और यही गौरव का भाव सकटों मे धैर्य, भद मे नम्रता तथा कर्म मे कर्मठता को बनाए रखता है। जिन्हे अपनी प्रात्मा का गौरव होगा, वे कभी उसे पतित नहीं होने देगे, चाहे कितनी ही विवयतापूर्ण परिस्थितियां उनके सामने आकर खड़ी हो जाएँ ! अपनी धात्मा का गौरव वनाइए, उसे निभाइए और अपने साथियो के गौरव की न्क्षा कीजिए, फिर देखिए समाज और राष्ट्र का गौरव बनेगा और वह विश्व के गौरव मे ददलता जाएगा। छोटे से लेकर समूहो तक के जीवन विकास की यही कहानी है। प्राज श्राप लोग भी स्वतयता के प्रतीक चक्रयुक्त तिरगे झडे का घभिवादन कर रहे है, स्वतत्रता पर भाषण-अभिभाषण हो रहे हैं किन्तु इन बाह्य क्रियायो मात्र ने स्वतत्रता का रक्षरण होने वाला नही है । इसके लिए तो अपने स्वार्थों का वलिदान चाहिए और चाहिए है वैसी कर्मठता जो त्याग की भूमि पर नुहृढना से गति कर रही हो । अगर ऐसा नहीं हुआ तो पया यह राजनीतिक स्वतत्रता टिक सकेगी और क्या महावीर की सर्वोच दाधीनता की साधना की जा सकेगी? इसलिए बन्धुयो, गणतत्र दिवस पर प्रतिज्ञा वीजिए कि श्राप गोंध रवाधीनता की अन्तिम सीमा तक गति करते ही रहेंगे। ॐ शाति । रसदन्त टॉकीज, घागरा २६ जनवरी, १९५०

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