Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 30
________________ जैन-संस्कृति का राजमार्ग किसी भी प्राण को क्लेशित करने का नाम हिसा कहा गया है तो प्रश्न पैदा होता है कि प्रारण क्या ? जीववारी की जो सजीवता है वही उसका प्रारण है । प्रारण का धारक होने से ही वह प्राणी कहलाता है । प्राण १० प्रकार के बतलाये गए है २८ १. एकेन्द्रिय वल प्राण २. वेइन्द्रिय बल प्रारण ३. तेइन्द्रिय वल प्रारण ४. चौइन्द्रिय वल प्राण ५. पचेन्द्रिय बल प्राण ६ मन-बल प्ररण ७. वचन-बल प्राण ८. कायान्वल प्राण ६. श्वासोच्छ्वास बल प्राण १०. प्रायुष्य वल प्राण प्रर्थात् प्राणी एकेन्द्रिय ( पृथ्वी आदि) से लेकर पचेन्द्रिय (पशु, मनुष्य आदि ) तक अपनी इन्द्रिय धारकता से होते हैं । इन्ही प्राणियों मे काया सूक्ष्म या स्थूल सबके होती है तथा मन और वचन की शक्ति किन्हीं प्राणियों में होती है और किन्ही मे नही होती । श्वासोच्छ्वास और श्रायुष्य का सम्वन्ध सभी प्राणियों से होता है । तो अब देखना यह है कि प्राणो को क्लेगित करने का क्षेत्र कितना लम्बा-चौडा है और हिंसा से बचने का प्रयास करना कितनी साधना का काम होता है ? पहली बात तो यह कि प्रारण सिर्फ मनुष्य या पशु-पक्षियों में ही वर्तमान नही हैं, जिनका खयाल ग्रासानी से रखा जा सकता है, किन्तु छोटेछोटे कीडे-मकोडे श्रौर वनस्पति, पानी आदि के लघुकाय जीवो के भी प्राणो को यदि किसी प्रकार से हमारी त्रियाओ द्वारा कष्ट हिंसा है। किसी भी प्राणी को मारना, काटना या पहुँचता है तो वह (i मारकर मास सेवन करना - ये तो बहुत मोटी बातें है और हिंसा की दृष्टि से इसे सब जल्दी ही

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