Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 36
________________ जैन-संस्कृति का राजमार्ग सके या नही, किन्तु अपने आपको तो बहुत गहरे अवश्य ही गिरा डालता है । साघु और श्रावक के भी अहिंसा व्रतो का जो ऊपर उल्लेख किया गया है उनका भी उद्देश्य यही है कि मन, वाणी और काया से अधिकाविक अहिंसा के दोनो पहलुप्रो का पालन किया जा सके। इसलिए मेरा श्राप लोगो से कहना है कि यदि आप अपने आपको परमात्मा का वफादार सेवक बनाना चाहते हैं और इस सृष्टि मे उत्कृष्ट समानता का वातावरण बनाना चाहते हैं तो समग्न रूप से अहिंसा का पालन कीजिए । जैनदृष्टि सभी आत्माओं मे समानता की मान्यता रखती है क्योकि मूल रूप मे सवमे कोई भेद नहीं है-विकास की न्यूनाधिकता दूसरी बात है। तो प्रात्मानो की यह समानता अहिंसा की साधना से प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की जा सकती है। अहिंसा ही वह सशक्त साधन है जिसके द्वारा प्रात्मसमानता यानी परमात्मा-वृत्ति के साध्य को साधा जा सकता है । स्थान अलवर (राजस्थान), ७-८-१९५१

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