Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 29
________________ जन प्रहिंसा और उत्कृष्ट समानता भेदभाव और विषमता क्यो ? एक सेठ का नौकर भी जब सेवा का कार्य करता है तो पुरस्कार पाता है और काम बिगाडता है तो तिरस्कृत होता है । फिर हम भी परमात्मा के सेवक बनकर यदि सृष्टि का सुधार करेगे तो ऊँचे चढते जाएँगे तथा अपने साथियो का अकल्याण करेगे पहले तो हमारा ही पतन होगा ? अत परमात्मा की जय बोलते हुए इस सृष्टि मे उसके प्रति वफादार रहने का एक ही मार्ग है और वह है अहिंसा का मार्ग । इसीलिए जैनधर्म जा हृदय है अहिंसा- "अहिंसा परमोधर्म ।" म सृष्टि मे रहते हुए सृष्टि को सुधारने वाला जो यह अहिंसा का सिद्धान्त है, वह क्या है ? यह गभीरता से सोचने और समझने लायक है। पहिला के पथ पर जो भी चला, उसने अपने विकास की चरम श्रेणी प्राप्त कर ली । प्रानन्द देकर जो आनन्द मिलता है, उसी के प्रकाशमान स्तभ अहिंसा पर हम यहाँ विचार करेगे । जनधर्म मे अहिंसा का जो स्वरूप-दर्शन तथा निरूपण किया गया है, वह सर्वाधिक सूक्ष्म है । यो तो अहिंसा को मान्यता सभी धर्म देते है किन्तु माथ-ही-साथ “धामिको हिसा हिंसा न भवति" का तर्क देते है अथवा माधुत्रो को भी सकट मे मासभक्षण का निर्देश करते है । वहाँ जैनधर्म की प्रात्मा अहिंसा है । “जय चरे, जय चिट्ठ " " हर कार्य इतनी यतना से होना चाहिए कि वह किसी भी प्राणी को तनिक-सा भी क्लेश देने वाला नहीं हो । से 'अहिता' शब्द स्वीकारात्मक न होकर नकारात्मक है । जहां हिंसा नहीं, वहाँ अहिला । ह्मिा की हमारे यहां व्याख्या दी गई है-"प्रमत्तयोगात् प्रणयपरोएण हिला"-प्रमाद के योग से किसी भी प्राण को हनना या प्लेश पहुँचाना हिना है । वने यह व्याख्या बहुत सीधी है, किन्तु मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जैनधर्म मे अहिंसा के न सिर्फ इस नकारात्मक पहलू पर गमीर प्रदान डाला गया है वरन् अहिंसा के स्वीकारात्मक पहलू पा सविस्तार अव्ययन किया गया है ।

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