Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ २४ जन-सस्कृति का राजमार्ग वीर जमे गजहस होते रहे हैं । जिन्होंने सदैव मसिद्धान्तो रूपी मुक्तानो का चयन किया और उन्हे ममग्र भारतवामियो को भेंट किया । फिर आज यह दुर्भाग्य क्यो जो मानसरोवर के राजहम अोठी व क नहपूर्ण गजनीति की गशे नलया पर बैठे है और जनता को मेढक बना रहे है । गणतत्र दिवस पर महावीर का त्यागमय सन्देग हृदय मे ग्रहण कीजिए, तब आप भलीभाँनि अनुभव कर सकेगे कि आज का युग ईर्ष्या, विग्रह एव आलोचना का नही, प्रेम, सहानुभूति एव कर्तव्यवर्मों के पालन करने का है । अब तक राजनीतिक रूप से ही सही, लेकिन जनता के जो हाथ-पांव बधे हुए थे, वे मुक्त हो गए है और अवसर पाया है कि अपने अथक कार्यों से देश की त्यागमय मस्कृति का धवन प्रकाश फिर से विश्व मे फैला दे । जिस विश्वप्रेम का पाठ ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने पढाया था उसी पाठ को वर्तमान समय मे निर्ग्रन्थ श्रमरण-सस्कृति के सत जनता को पढ़ा रहे है और गाधीजी सरीखे पुरुषो ने विश्वप्रेम को अहिंसा के नाम से व्यवहारिक व राजनीतिक क्षेत्र मे भी प्रसारित किया है, जो कि आज सबके सन्मुख है और मेरा भी आदेश है कि मानव, मानव की आत्मा के साथ शुद्ध अहिसामय प्रेम स्थापित कर, अन्य सभी कर्मजनित सकुचित दायरो से ऊपर शुद्ध मानवता के अनुभाव का पूर्ण विकास हो । विचार-भिन्नता होने पर भी कार्य-क्षेत्र मे भिन्नता नहीं होनी चाहिए, मनभेद मनभेद को पैदा नही करे। जो राजनीतिक स्वतत्रता प्राप्त हुई है, उसका उपयोग महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता के लिए होना चाहिए । इमी में देश का गौरव है और गौरव है शुद्ध कर्मण्यशक्ति का। महावीर ने दश वर्मो का वर्णन किया है, उसमे राष्ट्रवर्म का भी उल्लेख है । राष्ट्र अपने आप मे भौगोलिक सीमानो से वधा हुआ धर्म एव संस्कृति का एक वडा घटक होता है और उस सीमा तक कि वह धर्म विश्वप्रेम पर आघात न करे। गष्ट्र के प्रति निष्ठा एव भक्ति भी पूर्णतया आवश्या है । आज वही निष्ठा एव भक्ति भारतीयो के हृदयो मे पैदा होनी चाहिए कि देश का सम्मान बढे । जापान देश की एक छोटी-सी घटना बताई जाती

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123