Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 24
________________ जैन-मम्कृति का राजमार्ग की सन्वी स्वाव उसके निर्मन प्रकाश में समूह की गगनत्रता प्राप्त की जा सके । भारत को स्वनत्र हुए दो वर्ष बीत चुके और आज वह तत्र भी वन रहा है । ग्रव भारत किसी व्यपि विशेष का न होकर समष्टि का इन गया है । जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि व राष्ट्रपति हो देश वा प्रशासन चलाएँगे । जनताको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्राप्त होगे । इस तरह राजनीतिक दृष्टिकोण से जनता स्वतंत्र हो गई हैं । किन्तु जब तक जनता मे सभी दृष्टियों से स्वावलम्वन पैदा नही होगा नव तक स्वाधीनता नही आएगी। चाहे तो निर्वाह के साधन हो या मानसिक विकारों का क्षेत्र हो, परतंत्रता को मिटाने पर ही जीवन में नया उत्साह भर मकेगा । ग्राज जो यह यात्रिक प्रगति मामाजिक न्याय के बिना बेरोक-टोक की जा रही है, वह न तो योजनाबद्ध कही जा सकती है, न ही समाज के लिए सुखदायक। इस व्यवस्था मे प्रार्थिक विषमता बढ रही है और शापरण व अन्याय भी उसी परिमाण में तीव्रतर हो रहा है । क्योकि एक ओर तो लाभांश कमाने वाला शोधक समाज अधिक समृद्ध होता हुआ विलासिता के रग में डूंब रहा है तो दूसरी ओर शापण व अन्याय मे उत्पीडित वर्ग कष्टो मे विचलित होकर विकृति व हिसा के मार्ग पर कदम बढा रहा है। दोनों प्रकार से सारा समाज अनैनिकता की राह पर आगे बढ रहा है। त्यागमय सस्कृति के क्षीण होने मे वैभव की भूख बलवती हो रही है, जो समाज की स्वस्थ प्रगति के लिए शुभ लक्षण नहीं है । इसलिए सबसे पहले इस दूपिन व्यवस्था से मुक्ति पाए बिना आप मे सच्चा स्वावलम्बन नही फैल सकता है। ऐसी अवस्था में आज के युवक पर इसकी महान जिम्मेदारी है, किन्तु उसकी भी मन्तोषजनक स्थिति नहीं है । ग्राज के युवक के पास बोलने के लिए जिह्वा है, शब्दकोश है किन्तु हाथो के लिए कर्तव्यपरायणता और पाँवों के लिए कर्मठता नहीं है । परिणाम यह है कि युवक आज के राज-समाज की लोचना तो करता है किन्तु उसे सुदृढता मे बदल डालने के लिए त्यागमत्र जोश से अपने आप को वह कटिबद्ध नहीं कर पाता है। विचार २२

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