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महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता
कर देता है । वह आज की तरह अपने अधिकारों के लिये रोता नही, वह कार्य करना जानता है और कर्तव्यो के कठोर पथ पर कदम बढाता या चलना जाता है । जैसा कि गीता मे भी कहा गया है
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।"
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फल को कामना ने कोई कार्य मत करो, अपना कर्तव्य जानकर करो, तब उस निष्काम कर्म मे एक आत्मिक आनन्द होगा और उसी कर्म का सम्पूर्ण समाज पर विशुद्ध एव स्वस्थ प्रभाव पड सकेगा । कामनापूर्ण कर्म दूसरो के हृदय मे विश्वास पैदा नहीं करता, क्योकि उसमे स्वार्थ की गन्ध होती है और सिर्फ स्वार्थ, परार्थ का घातक होता है । स्वार्थ छोडने से परार्थ की भावना पैदा होती हैं और तभी प्रात्मिक भाव जागता है ।
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महावीर ने स्वाधीनता के इसी प्रादर्श को बताकर विश्व में फैली ब े-छोटे, छूत प्रत, धनी - निर्धन यादि की विषमता एव भौतिक शक्तियो के मिथ्याभिमान को दूर हटाकर सबको समानता के अधिकार बताए । यही कारण है कि ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी महावीर के अहिंसा और त्याग के अनुभावो की गूज बराबर बनी रही है । महात्मा गाधी आदि प्रभृति राष्ट्रीय नेताओ ने कोई सन्देह नही कि इसी गूज ने प्रेरणा प्राप्त की एवं उनके सन्देश को गत मे पुनर्प्रतिष्ठित किया । चाहे बाह्य दृष्टि से ये नेता न जैन कहलाये, न हो महावीर के शिष्य, किन्तु अपरिग्रह और ग्रहीसा के सिद्धान्तों को जो सामाजिव महत्त्व इन्होंने दिलाया उसे हम उनका जैनत्व ही माने । क्योकि ग्राप जानते ही है कि जैनत्व किसी वर्ग, जाति या क्षेत्र के साथ बधा हुआ नही है तथा न ही इसका नाम मे ही सार्थक महत्त्व है। शुद्ध दृष्टि से तो जैनत्व वहाँ ही माना जायगा, जहाँ तदनुरूप वार्य का तत्व है । ग्रग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध जो स्वातव्य-मघर्ष आज तक किया गया, उनमें अहिंसा और त्याग को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है तथा उसी भावना का परिणाम है कि श्राज भारत स्वतंत्र से गरणतत्र भी हो रहा है । तो जिस पथ पर चलकर इतना विकास सम्पादित किया जा सका है, महावीर वाणी कहती है कि इसी पथ पर आगे बढो, ताकि ग्रात्मविकास