Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 21
________________ महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता महावीर प्री बुद्ध ने जिस गणतत्र के स्वतत्र वातावरण में स्वय का विकास नाधा और कोटि-कोटि जन को जीवन के स्वाधीनतापूर्ण विकास की ओर उन्मुख किया आज भारत मे उसी गणतत्र की ज्योति चमक उठी है । परतत्रता की शृ ग्वलायो को काटकर जन-जन का जीवन जो आज स्वतत्र गगगनत्र के उल्लाम मे परिपूरित हो उठा है, उसके ही प्रतीकस्वरूप आज चागे और मनाए जाने वाले समारोह है । मैं भी आज के दिवस के अनुरूप ही इस विषय पर कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ कि महावीर का सर्वोच्च स्वाधीनता का सन्देश कमा अनुपम है और उन उत्कृष्ट स्वाधीनता की ओर हम भारतवानियो को किम उत्साहपूर्ण भावना मे गति करनी चाहिए? महावीर ने जो कहा पहले उसे किया और इसीलिए उनकी वाणी में कर्मठना का प्रोज व भावना का उद्रेक दोनो है । हिंसा के नग्न ताडव से मलप्त एव शोषण व अत्याचार से उत्पीडित जनता को दु.खो से मुक्त करने के लिए भगवान महावीर ने स्वय अहिमा धर्म की प्रव्रज्या लेकर हिसा को क्रान्निवारी तथा मुग्वकारी आवाज़ उठाई । स्वार्थोन्मत्त नरपिशाचों को प्रेम, महानुभूनि, शान्ति एव सत्याग्रह के द्वारा उन्होंने स्वाधीनता का दिव्य पथ प्रदर्शित किया । माया-मग्रह म्प पिशाचिनी वे वराल जान मे फमे हुए मानवो को उन्होंने पथभ्रष्ट विलासिता के दन-दन मे निकालकर निर्ग्रन्थ अपरिग्रवाद का प्रादर्ग दनाया। उन्होने स्वय महतो के ऐश्वर्य व राजसुख का त्याग कर निर्गन्य माधुत्व को वरण किया नया अपने मजीव अादर्श मे स्पष्ट किया वि भौतिक पदार्थों के इच्छापूर्ण त्याग ने ही यात्मिक मुख का स्रोत फूट नवेगा । पयोवि ग्रथि (ममना) को ही उन्होंने ममस्त दुखो का मूल माना,

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