Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 19
________________ जन-संस्कृति की विशालता १७ गुणो से आत्मा चरम विकास की ओर गतिशील हो, यही जैन दर्शन एव संस्कृति की मूल प्रेरणा है । मुझे श्राप नवयुवको से यही कहना है कि प्राप जैन दर्शन एवं संस्कृति की इस विशालता एव महानता को हृदयगम करे एव उस प्रकाश मे अपने जीवन का निर्माण तथा विकास साधे । अभी मैंने "समरा" शब्द का जो अर्थ व्यक्त किया, वह केवल साधुओ के लिए ही नहीं है । आप लोगो को भी शास्त्रकारों ने 'समरणोपासक' कहा है प्रर्थात् समरण - संस्कृति की उपासना करने वाले समरण - वृत्ति के अनुसार आचरण करने वाले । आप लोगो ने जैन सोसायटी नामक नम्वा स्थापित की है तथा जैननति के प्रचार की वान आप सोच रहे है । यह अच्छा है, लेकिन इन कार्यो में अपने प्रत्येक कदम पर जैन दर्शन एवं संस्कृति की मूल भावना का सदैव ख्याल रन्वना । जो दृष्टिकोण मैने आपके सामने रखा है, उसके अनुसार यदि श्राप जैन - सस्कृति का प्रचार करते हो तो प्रत्येक धर्म व संस्कृति के सत्याशो का स्वन ही प्रचार हो जाएगा । क्योकि जैनदर्शन का कभी ग्रह नही कि उसका अपना कुछ है - वह तो सदाशयो का पुज है, जहाँ से सभी प्रेरणा पा सकते है । ब्राह्मण-संस्कृति व पाश्चात्य देशो मे भी अहिंसा, सत्य एव पुरुपार्थ के जिन का प्रवेश हुग्रा है, उसे जैन-सस्कृति की ही देन समझना चाहिए। गाधी जी ने भी ग्रहमा को साघन बनाकर देश के स्वातत्र्यआन्दोलन को मजबूत बनाया, वह भी जैन सम्कृति को ही विजय है । भगवान महावीर ने किसी प्रकार की गुटबन्दी, साम्प्रदायिकता फैलाने का कभी नही सोचा | उन्होंने तो श्रम, समता, सद्वृत्ति की सन्देश वाहक श्रमण संस्कृति का प्रचार करके गुण- पूजक संस्कृति का निर्माण किया और वान्त के सिद्धान्त से भवका समन्वय करना सिखाया । इसलिए इस संस्कृति का प्रचार करना है तो सयम को कभी मत भूलना । संस्कृति के विकास का मूल सयम है । जैनधर्म यही शिक्षा देता है कि सयम के पथ पर चलकर साधा हुना विकास ही सच्चा विकास है । जहाँ अपनी वृत्तियो पर I

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