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जन-सस्कृति का राजमार्ग
इतने तल्लीन हो जानो कि किमी तरह पराश्रयी न रहकर म्वाश्रयी बन सको और यह जो पुरुषार्थ-श्रम- करना है, किन्ही दूसरों को दवाकर अपना मिर ऊंचा करने के लिए नही अथवा दूसरों का शोषण करके अपना पेट भरने के लिए नहीं बल्कि अपने आन्तरिक शत्रुओ एव मनोविकारो को नष्ट करने के लिए । जब आत्मा मे श्रमण-वृत्ति जागती है तो वह अपने आपको व्यापक हित के लिए विसर्जित कर देता है, अपना सुख करुणा और साधना मे विखेर देता है । वस्तुत पुरुषार्थ ही मानव को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाता है । जो व्यक्ति स्वावलम्बी रहता है, वही सुखी बनता है और जो पराधीन है वह चाहे सारी सुख-सामग्री के बीच खडा है, तो भी मुखी नहीं हो सकता । जो सस्कृति स्वतत्रता को आधारस्तम्भ बनाकर खडी है, उसकी व्यापकता एव विशालता की तुलना किमी अन्य छिछली सस्कृतियो से नही की जा सकती। जैन-सस्कृति का मूलाधार 'श्रमण' है।
_ 'समण' का दूसरा शब्दार्थ होता है-समन । इसका अर्थ है प्राणिमात्र के प्रति साम्यभाव रखना । सबके मुख-दुख को अपने सुख-दुःख के समान समझकर उनके प्रति व्यवहार करना । कष्ट मे पडे हुए प्राणी को देखकर उसे कष्ट से मुक्त करना और उमकी रक्षा करना-यह सहज वृत्ति प्रात्मा मे जागे उसे समन कहा है । इसकी सच्ची कसौटी प्रात्मानुभव है । यह विचारणा मनुष्य को आत्मिक मौन्दर्य का दर्शन कराने वाली है। क्योकि इस विचारणा के अनुसार प्राचरण करने वाला कोई भी क्यो न हो, उसके मन में अशान्ति का विषैला वातावरण कभी भी पैदा नहीं होगा। जब वह किमी प्राणी को कष्ट से मुक्त करेगा या करुणा कर के सहयोग देगा तो उनके मन में एक असीम शान्ति का अनुभव होगा जो उसे सुग्वदायक लगेगा।
तीमग शब्दार्थ है-गमन अर्थात् दबाना । दवाना है अपने कुविचागे गव अपनी कुप्रवृत्तियो को ताकि मवृत्तियां पनपें और आत्मा में सुविचार पंदा हो । जिम व्यक्ति में अपने व्यवहार का ज्ञान होगा वही व्यक्ति दूमरो के प्रति सद्व्यवहार कर सकेगा और असद्व्यवहार का शमन करेगा। किन्तु जिसका अपनी वृत्तियो या प्रवृत्तियो पर नियत्रण नहीं है, जीवन की