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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
पदारोपण - विधि का उल्लेख करते हुए अन्य परम्पराओं के साथ उन विधियों की तुलना कर समीक्षा करने का प्रयत्न किया गया है।
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सातवें अध्याय में उपसंहार के रूप में आचारदिनकर में वर्णित विविध संस्कारों की मूल्यवत्ता का आंकलन करते हुए वर्तमान समय में उनकी क्या प्रांसगिकता है - इसका उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार सात अध्यायों से युक्त इस शोधप्रबन्ध की प्रस्तुति की वेला में निश्चित ही मैं आन्तरिक - आनंद और आह्लाद का अनुभव कर रही हूँ। इस शोधप्रबन्ध में तुलनात्मक विवेचन हेतु यथासंभव जो भी ग्रन्थ उपलब्ध हो सके, उनका अवलोकन किया है, किन्तु फिर भी ग्रन्थों की अनुपलब्धता के कारण, हो सकता है कि बहुत कुछ अपूर्ण रहा हो, उसके लिए मैं विद्वत्-वर्ग से क्षमाप्रार्थी हूँ और उनके सुझावों के अनुसार भविष्य में इसे पुनः परिमार्जित करने की मेरी भावना है।
प्रस्तुत शोधकार्य :
यद्यपि जैनधर्म, दर्शनसाहित्य, इतिहास और संस्कृति को लेकर अभी तक अनेक शोधकार्य हुए, किन्तु दुर्भाग्य से संस्कार सम्बन्धी शोध उपेक्षा का ही विषय रहा है। संस्कारों के सम्बन्ध में अभी तक कोई भी शोधकार्य नहीं हुआ है। हमारी जानकारी में आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रस्तुत - संस्कारों से सम्बन्धित विधि-विधानों पर भी कोई शोधकार्य नहीं हुआ है। डॉ. सौम्यगुणाश्रीजी ने “विधिमार्गप्रपा” पर अपना शोध प्रबन्ध लिखा है, किन्तु जहाँ तक “विधिमार्गप्रपा ” का प्रश्न है, वह यतिजीवन के ही कुछ संस्कारों का उल्लेख करती है, गृहस्थजीवन के सोलह संस्कारों का उसमें कोई उल्लेख नहीं है, जबकि “आचारदिनकर” गृहस्थजीवन के सोलह संस्कारों पर अधिक बल प्रदान करता है और यही मात्र एक ऐसा ग्रन्थ है, जो न केवल सोलह संस्कारों का उल्लेख करता है, अपितु इनके सम्बन्ध में विधि-विधान की विस्तृत विवेचना भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार प्रस्तुत शोधकार्य जैन- विद्या के क्षेत्र में शोध की दृष्टि से एक नए आयाम को प्रस्तुत करता है - ऐसा हमारा विश्वास है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में एक उपेक्षित विषय पर प्रकाश डाला गया है और इस प्रकार यह शोधकार्य एक मौलिक शोधकार्य की श्रेणी में आता है। इस शोधकार्य के निमित्त जो महत्वपूर्ण कार्य हुआ है, वह यह है कि इस संस्कृत - प्राकृत मिश्रित मूलग्रन्थ का सम्पूर्ण अनुवाद |
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