Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ प्रश्न है कि रहस्यवाद कहते किसे हैं? तो इस सम्बन्ध में लेखक का स्पष्ट कहना है कि- “जैनधर्म में रहस्यवाद का समानार्थक शब्द 'शुद्धोपयोग' है। कुन्दकुन्द के अनुसार बहिरात्मा को छोड़ने के पश्चात् अन्तरात्मा के द्वारा लोकातीत आत्मा की अनुभूति रहस्यवाद है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि रहस्यवाद आत्मानुभूति, आत्मदर्शन, आत्मसाक्षात्कार या आत्मलीनता की वचन-अगोचर स्थिति का ही अपर नाम है जिसे आचार्यों ने समाधि, योग, तत्त्वोपलब्धि, वीतरागस्वसंवेदन, ध्यान, निर्विकल्प आत्मध्यान, शुद्धोपयोग आदि अनेक अन्य शब्दों से भी कहा है। डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने 'परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना में इसे ही 'गूढवाद' शब्द से भी सूचित किया है। - जैनदर्शन में सर्वत्र ही इस स्थिति का बड़ा महत्त्व माना गया है। निश्चयधर्म का प्रारम्भ वस्तुतः इसी दशा से माना गया है। प्रारम्भ ही नहीं, विकास एवं पूर्णता भी परमार्थतः इसी अवस्था से मानी गयी है। आचार्यों ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-'धर्मः शुद्धोपयोगः स्यात्'। अर्थात् धर्म तो वस्तुतः शुद्धोपयोग है, शेष उसकी पूरक समस्त क्रियाओं को कारण में कार्य का उपचार करके 'धर्म' कहा जाता है। 1. जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त, खण्ड-2, पृष्ठ 62 • 2. “साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम्। शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः।।" -पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, 64 3. “यह निश्चित है कि जैन गूढ़वाद सभी को विशेष रोचक मालूम होगा।" -परमात्मप्रकाश, अंग्रेजी प्रस्तावना का हिन्दी सार, पृष्ठ 106 (The Jain mysticism is sure to be all the more interesting -Page 2) (XV) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152