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के दो वर्ग बताते हैं- निवृत्ति भक्ति और योग भक्ति।।42 पूर्ववर्ती में समाविष्ट हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और मुक्तात्मा। परवर्ती के अन्तर्गत हैं- आसक्ति और सभी दूसरे विचारों को त्यागने के पश्चात् आत्मध्यान में तल्लीनता।143 हम हमारे विचार से भक्ति के विभिन्न प्रकार इस तरह व्यक्त कर सकते हैं- स्तुति, वन्दना, मूर्तिपूजा, नामस्मरण, भजन, कीर्तन, विनय, वैयावृत्य और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग। हम पूर्व में स्तुति, वन्दना, विनय और वैयावृत्य का वर्णन कर चुके हैं। मूर्तिपूजा के विस्तार की आवश्यकता नहीं है। जैन मंदिर इस प्रकार की पूजा के उदाहरण हैं। नामस्मरण में ओम् तथा परमेष्ठी के नाम की पुनरावृत्ति की जाती है। द्रव्यसंग्रह144 के अनुसार णमोकार मंत्र और गुरु के द्वारा दिये गये अन्य मंत्रों की पुनरावृत्ति और उन पर ध्यान भक्ति है। सोमदेव णमोकार मंत्र को अत्यधिक महत्त्व देते हैं।145 पुनरावृत्ति वाणी से और मन से हो सकती है। मन से पुनरावृत्ति अत्यधिक प्रभावोत्पादक है।।46 भजन भी नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक होते हैं। वे आध्यात्मिक जीवन में प्रेरक के रूप में काम करते हैं; वे गुणात्मक जीवन की आवश्यकता को बताते हैं, देव, शास्त्र व गुरु के महत्त्व को प्रकट करते हैं; परमात्मानुभव के प्रभाव को बताते हैं। विभिन्न प्रकार के भजन बनारसीदास, भागचन्द, द्यानतराय, भूधरदास आदि में पाये जाते हैं। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग में सम्मिलित है- अनवरत आध्यात्मिक
142. नियमसार, 134, 137 143. नियमसार, 134, 135, 137 144. द्रव्यसंग्रह, 49 145. Yasastilaka and Indian Culture, P.272 146. Yasastilaka and Indian Culture, P.272
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