Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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अनुभव की पहुँच में होती हैं। इस प्रकार रहस्यात्मक जीवन की गरिमा बुद्धिगम्य नहीं होती है और शास्त्रों और इन्द्रियों की पहुँच से बाहर होती है किन्तु ध्यान के द्वारा अनुभव की जा सकती है। 246 यह कहना असंगत नहीं होगा कि अर्हत् की श्रेणी 'पावन' होती है अर्थात् व्याख्या और मूल्यों की श्रेणी के अन्तर्गत कही जाती है । रहस्यवादी की धार्मिक चेतना में अतार्किक और तार्किक तत्त्व अन्तर्व्याप्त होते हैं। अवर्णनीय तत्त्व अतार्किक होता है और केवलज्ञान का प्रकाश, अनन्त शक्ति, भय का नाश व संदेह की समाप्ति- ये सभी तार्किक तत्त्व हैं।
सिद्धावस्था या उत्कृष्ट लोकातीत जीवन
वह अवस्था जिसे हम विदेह मुक्ति कहते हैं, वह आत्मा की अंतिम परिपूर्णता है और सिद्धावस्था की प्राप्ति उत्कृष्ट लोकातीत जीवन है। आत्मा की यह अवस्था गुणस्थानों से परे है। आध्यात्मिक विकास की अंतिम अवस्था के पश्चात् आत्मा एक क्षण में लोक के अंत में चला जाता है क्योंकि उसके पश्चात् धर्म द्रव्य अलोक में नहीं है। 217 आत्मा का ऊर्ध्वगमन चार कारणों से होता है - 218 प्रथम, आत्मा में दासता से मुक्त होने के लिए पूर्व घोर प्रयत्न का प्रभाव विद्यमान होने के कारण, जिस प्रकार कुम्हार का चाक हाथ हटा लेने के पश्चात् भी घूमता रहता है। द्वितीय, कर्मों के भार से स्वतंत्र होने के कारण, जिस प्रकार पानी में तुमड़ी की ऊर्ध्वगति मिट्टी का भार समाप्त होने के कारण होती है। तृतीय, सभी कर्मों के नाश होने के फलस्वरूप, जैसे एरण्ड बीज का ढक्कन हटाने के कारण ऊर्ध्वगति होती है। चतुर्थ, उसकी अपने
216. परमात्मप्रकाश, 23
217. नियमसार, 175, 183
218. सर्वार्थसिद्धि, 10/6, 7
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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