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अंतरंग स्वभाव के कारण ऊर्ध्वगति होती है क्योंकि कर्मों की शक्ति की अनुपस्थिति है, जिस प्रकार लैम्प की लौ की दिशा हवा की अनुपस्थिति के कारण ऊर्ध्वगामी होती है। आत्मा का वास्तविक निवासस्थान लोक का शीर्ष है, कर्मों के भार के कारण आत्मा संसार में आ जाता है और जब वह अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेता है तो वह अपने वास्तविक निवास पर चला जाता है। सिद्ध की विशेषताएँ
सिद्ध कार्य-कारण के संबंध से परे होते हैं क्योंकि द्रव्य कर्म, भाव कर्म और परिणामस्वरूप चार गतियाँ समाप्त हो गयी हैं। कारणता की कोटि सांसारिक जीवों पर लागू होती है, सिद्धों पर नहीं। कुन्दकुन्द कहते हैं कि सिद्ध न तो उत्पाद है और न उत्पादक है अत: न कारण है
और न कार्य।219 षट्खण्डागम के अनुसार वह जिसने समस्त कर्मों को नष्ट कर दिया है, बाह्य वस्तुओं से स्वतंत्र है और उसने अनन्त अपूर्व एवं अमिश्रितं आनन्द प्राप्त कर लिया है। वे किसी चीज में आसक्त नहीं हैं जिन्होंने स्थिरता प्राप्त कर ली है, जो सद्गुणों के निधान हैं और जिन्होंने लोक के शीर्ष पर अपना निवास बना लिया है वे सिद्ध होते हैं।220 सिद्धत्व की प्राप्ति का निर्वाण से भेद नहीं है221 जहाँ निषेधात्मक रूप से कहा जाता है कि वहाँ न दुःख, न सुख, न कोई कर्म, न शुभअशुभ ध्यान, न मृत्यु, न जन्म, न इन्द्रियाँ, न विपत्ति, न मोह, न आश्चर्य, न निद्रा, न इच्छा, न भूख है और जहाँ स्वीकारात्मक रूप से कहने पर वहाँ पूर्ण ज्ञान है, ध्यान है, आनन्द है, शक्ति है, अभौतिकता
219. पञ्चास्तिकाय, 36 220. षट्खण्डागम, भाग-1/200 221. नियमसार, 183
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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