Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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स्वयं के प्रयत्नों पर निर्भर करता है और वह अपनी सारी शक्ति को दिव्य जीवन प्राप्त करने में समर्पित कर देता है। इस प्रकार प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकार है जिसमें दिव्य अन्तःशक्ति की पूर्ण अनुभूति होती है। अरिहंत की विशेषताएँ
आचारांग के अनुसार अरिहंत सभी दिशाओं में सत्य में स्थापित होते हैं। वे आत्मसमाहित होते हैं। उन्होंने अपने आपको क्रोध, मान, माया, लोभ, आसक्ति, घृणा, मोह, जन्म, मरण, नरक व पाशविक अस्तित्व के दुःख से मुक्त कर लिया है।
अरिहंत अति नैतिक जीवन जीते हैं, अ-नैतिक जीवन नहीं जीते हैं। अरिहंत ने पूर्ण अहिंसा प्राप्त कर ली है। वे गुण-दोषों से, पुण्यपाप से और शुभ-अशुभ से परे होते हैं, फिर भी वे अत्यधिक रूप से गुणवान कहे जा सकते हैं, यद्यपि गुणवान जीवन उनको जन्म-मरण के बंधन में नहीं डालता है।।
___ समन्तभद्र के अनुसार अरिहंत की मन-वचन और काय की क्रियाएँ अचिन्त्य होती हैं क्योंकि वे इच्छा और अज्ञान से उत्पन्न नहीं होती हैं।194 जो कुछ भी उनसे प्रवाहित होता है वह मानव जीवन के दुःखों को मिटाने के लिए सशक्त होता है।
सैकड़ों आत्माएँ उनको देखने मात्र से आत्मजाग्रत हो जाती हैं, अपने मिथ्यात्व को त्याग देती हैं। उनकी उपस्थिति सर्वोच्च रूप से प्रकाशदायी होती है। हजार नेत्र होते हुए भी इन्द्र के लिए उनका शरीर
193. ज्ञानार्णव, 42/33 194. स्वयंभूस्तोत्र, 74
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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