Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 142
________________ आश्चर्यजनक होता है। वे मानव स्वभाव से परे हैं और देवताओं द्वारा पूज्य हैं, इसलिए वे परमात्मा कहे जाते हैं।19 वे रहस्यवादी गुणों के मूर्त रूप होते हैं और समाज के आध्यात्मिक नेता होते हैं।197 वे राग, द्वेष और मोह से परे होते हैं। परिणामस्वरूप पूर्णतया वीतरागी होते हैं।198 द्रव्य के स्वरूप को अन्तर्दृष्टि से जानने के कारण उनके सभी संदेह समाप्त हो गये हैं।199 आत्मानुभव उत्पन्न होने के कारण इन्द्रियों, मन और कषायों पर विजय प्राप्त करना उनके लिए स्वाभाविक हो गया है अर्थात् आत्मानुभव के कारण वे मित्र और शत्रु, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, जीवन और मरण, मिट्टी और सोने के द्वन्द्व से परे हो गये हैं।200 वे अपने में कुछ सामंजस्यपूर्ण अन्तर्विरोधों को स्वीकार करते हैं; वे आत्मस्थित होते हैं फिर भी सर्वव्यापक हैं, वे सभी वस्तुओं को जानते हैं फिर भी अनासक्त हैं, वे दीर्घायु होते हैं फिर भी बुढ़ापे से रहित होते हैं।201 __ अरिहंत शुद्ध चेतना को अभिव्यक्त करते हैं, घातिया कर्मों का नाश करते हैं और अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करते हैं,202 अनन्त शक्ति और अद्वितीय दीप्ति प्राप्त कर चुके हैं।203 195. स्वयंभूस्तोत्र, 89 196. स्वयंभूस्तोत्र, 75 197. स्वयंभूस्तोत्र, 35 198. प्रवचनसार, 1/14 अमृतचन्द्र की टीका सहित 199. प्रवचनसार, 1/14, 2/105 200. प्रवचनसार, 1/14, 3/41,42 201. विषापहारस्तोत्र, 1 202. प्रवचनसार, 1/41 203. प्रवचनसार, 1/15, 19 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (107) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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