Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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(2) अक्रियाशील अरिहंत (अक्रियाशील रहस्यवादी)। इस प्रकार जहाँ कहीं भी हमने अरिहंत शब्द का प्रयोग किया है और जहाँ कहीं भी करेंगे वहाँ मुख्यरूप से हम उसका अर्थ तीर्थंकर ही मानेंगे और गौणरूप से सामान्य केवलियों को जानेंगे।189 तीर्थंकर बनने में सोलह प्रकार की भावनाओं के प्रति समर्पण होता है।19 सिद्ध अवस्था तीर्थंकर हुए बिना भी प्राप्त की जा सकती है। परमात्मा की धारणा
___ जो दिव्यता का अनुभव की हुई आत्माएँ हैं, उन्हें हम परमात्मा कह सकते हैं। सिद्ध भी परमात्मा कहे गये हैं किन्तु न तो अर्हत् और न सिद्ध पर संसार की रचना, पालन और नाश का उत्तरदायित्व है। साधक को उनसे आशीर्वाद और शाप प्राप्त नहीं होता है। “साधक उनकी पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं और उन पर ध्यान लगाते हैं। 191 किन्तु यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि अरिहंतों या सिद्धों की भक्ति से आत्मा में उच्च प्रकार का पुण्य संचित होता है जिससे कई आध्यात्मिक और भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं। - वह जो उनका भक्त होता है उसको समृद्धि प्राप्त होती है, वह जो उनकी निन्दा करता है वह नरक में गिरता है। इन दोनों अवस्थाओं में अरिहंत उदासीन होते हैं।192 साधक को अरिहंत और सिद्ध की इस उदासीनता से निराश नहीं होना चाहिए। जो भी उनके भक्त होते हैं वे अपने आप उन्नत हो जाते हैं। मुक्ति प्राप्त करने का उत्तरदायित्व अपने
189. मोक्षमार्गप्रकाशक, 6 190. सर्वार्थसिद्धि, 6/24 191. परमात्मप्रकाश, Introduction, P.36 192. स्वयंभूस्तोत्र, 69
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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