Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 129
________________ भक्त की समर्पण भावना उस समय देखी जा सकती है जब समन्तभद्र यह घोषणा करते हैं कि वही बुद्धि होती है जो परमात्मा को स्मरण रखती है; वही सिर होता है जो उसके चरणों में झुक जाता है; वही सफल जीवन होता है जो उसके पवित्र संरक्षण में जीता है; वही वाणी है जो उसकी प्रशंसा के गीत गाती है; वही पवित्र मनुष्य होता है जो परमात्मा की भक्ति में तल्लीन रहता है और वही विद्वान होता है जो परमात्मा के चरणों में झुकता है।138 परिणामस्वरूप परमात्मा ही अकेला उसके श्रद्धा का केन्द्र होता है। वह उसको याद करता है और उसकी पूजा करता है; उसके दोनों हाथ उसका सत्कार करने के लिए ही हैं; उसके कान उसकी विशेषताओं को सुनने के लिए होते हैं; उसकी आँखें उसके सौन्दर्य को देखने के लिए होती हैं; उसकी मूलभूत आदत उसकी प्रशंसा में कुछ लिखने की होती है और उसका सिर सदैव उसके प्रति झुका रहता है।139 भक्ति के प्रकार अब हम भक्ति के प्रकारों पर विचार करेंगे। यह अर्हत् भक्ति, आचार्य भक्ति, उपाध्याय भक्ति और प्रवचन भक्ति के रूप में अभिव्यक्त की जा सकती है।140 दूसरे प्रकार से भी इसका वर्गीकरण किया गया हैसिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगी भक्ति, आचार्य भक्ति, निर्वाण भक्ति, पंचगुरु भक्ति, तीर्थंकर भक्ति, नन्दीश्वर भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति और चैत्य भक्ति। 41 कुन्दकुन्द नियमसार में भक्ति 138. जिनशतक, 113 139. जिनशतक, 114 140. तत्त्वार्थसूत्र, 6/24 141. दशभक्ति संग्रह, पृष्ठ 96 - 226 (94) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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