Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
वात्सल्य,160 मार्गप्रभावना'61 कर्मयोग के सामाजिक पक्ष में सम्मिलित हैं। विनयसम्पन्नता,162 साधु-समाधि,163 वैयावृत्त्य,164 अर्हत्भक्ति,165 आचार्यभक्ति,166 बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति'68 भक्तियोग में सम्मिलित मानी जानी चाहिए। दर्शनविशुद्धिा69 जो सबके शीर्ष पर है वह ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग में व्याप्त प्रवृत्ति है।
आत्मजाग्रति (सम्यग्दर्शन) के बिना बुद्धि, संकल्प और हृदय की क्रियाएँ ऊँचाई पर आरोहण के लिए निष्फल होंगी। उपर्युक्त वर्गीकरण विभिन्न भावनाओं में बौद्धिक, भावात्मक और संकल्पात्मक तत्त्वों को दर्शाता है, जैसे मानसिक जीवन के तीनों पहलू एक सामंजस्य की स्थिति में गुंथे हुए हैं उसी प्रकार इन भावनाओं में प्रत्येक एक दूसरे में अन्तर्व्याप्त है, उनमें से कोई भी ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का स्वतंत्र रूप से काम दे सकता है। संभवतः इसके कारण आचार्य पूज्यपाद ने स्पष्ट घोषणा की कि ये भावनाएँ अलग-अलग और एकसाथ तीर्थंकरत्व का कारण हो सकती हैं। 70 ये भावनाएँ गृहस्थ और
160. आध्यात्मिक बंधुओं की तरफ प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण रखना जैसे गाय बछड़े के
प्रति रखती है वह प्रवचनवात्सल्य है। 161. समाज को ज्ञान, तप, दान, भक्ति और पूजा से प्रभावित करना मार्गप्रभावना
162. गुरु और आध्यात्मिक मार्ग के प्रति समादर भाव रखना विनयसम्पन्नता है। 163. मुनि के मार्ग से बाधाओं को हटाना साधु-समाधि है। 164. गुणीजनों की सेवा-शुश्रूषा वैयावृत्त्य है। 165-168. अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय और प्रवचन में शुद्ध भक्ति रखना क्रमश:
अर्हन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति कहलाती है। 169. आत्मजाग्रति (सम्यग्दर्शन) दर्शनविशुद्धि है। 170. सर्वार्थसिद्धि, 6/24
(98)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org