Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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स्थायी होता है और उपशम सम्यक्त्व अस्थायी होता है। इस तरह से चौथे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम से आध्यात्मिक रूपान्तरण होता है जो उपशम सम्यक्त्व कहलाता है या सम्यक् प्रकृति के उदय से भी जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। आध्यात्मिक रूपान्तरण या आत्मजाग्रति (सम्यग्दर्शन) के पश्चात् रहस्यवादी यात्रा के लिए आवश्यकताएँ
दर्शनमोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न घोर अंधकार को नष्ट करने के साथ-साथ रहस्यात्मक यात्रा का एक भाग पार कर लिया गया है अर्थात् आत्मा अन्तरात्मा में रूपान्तरित हो चुका है और उसके कारण वह परिवीक्षा पर एक नये जगत का नागरिक हो गया है। पूज्यपाद का कथन है कि आत्मा जो आध्यात्मिक चेतना के अभाव में गहरी निद्रा में सुप्त था वह अब आत्मा का स्वाद विकसित करने के कारण जाग्रत
आत्मा बन चुका है। वे स्रोत जो सुप्त आत्मा को अस्थायी संतुष्टि प्रदान करते थे अब पराजित हो गये हैं और उनके स्थान पर शाश्वत संतुष्टि के अंतरंग स्रोत खुल गये हैं। एक पूर्ण परिवर्तन उत्पन्न हो गया है। इतना होते हुए भी अभी भी एक लम्बी यात्रा आत्मा के द्वारा की जानी है जिससे आत्मा परमात्मा में परिवर्तित हो सके और एक स्थायी और सम्माननीय स्थिति ‘नये जीवन' के सदस्यों में प्राप्त हो सके।
85. लब्धिसार, 164 86. Yoga of the Saints, P.60 87. समाधिशतक, 24 88. समाधिशतक, 60 89. Yoga of the Saints, P.60
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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