Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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अस्थिरता उसी प्रकार नष्ट हो जाती है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अंधकार नष्ट हो जाता है।18 स्वाध्याय से मानसिक एकीकरण और एकाग्रता उत्पन्न होती है क्योंकि साधक बाधाओं को जीतकर वस्तुओं के स्वरूप को जान लेता है।19 स्वाध्याय के बिना व्यक्ति का गुणात्मक मार्ग से भटकने का खतरा बना रहता है, जैसे कि एक वृक्ष जो फूलों और पत्तियों से भरा हुआ होता है वह जड़ के बिना अपने को नाश होने से नहीं बचा सकता।120
बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय का महत्त्व सर्वोपरि होता है।।21 यदि स्वाध्याय गृहस्थ को ध्यान और भक्ति के माध्यम से मुनि बनने के लिए प्रेरित करता है तो यह मुनि के लिए ध्यान की थकान से विश्राम करने के काम आता है। स्वाध्याय से ध्यान की प्रेरणा मिलती है और यह संतोष और बौद्धिक निधि प्रदान करता है। “यह मस्तिष्क के लिए पुष्टिकारक दवा है और हृदय के लिए रसानन्द है।'' 122 इससे रहस्यवादी सत्यों के बारे में दार्शनिक संतोष प्राप्त होता है और एक ऐसी उत्कट भावना पैदा होती है कि हम उन सत्यों का जीवन में अनुभव करें। "स्वाध्याय से रहस्यवादी मन को अपनी सीमाओं का भान होता है, यह साधक को प्रयत्न करने के लिए जगाता है, उसके ध्यान व भक्ति को बढ़ाता है तथा उसको नैतिक गुणों के विकास के लिए प्रेरणा देता है।"123
118. अमितगति श्रावकाचार, 13/83 119. प्रवचनसार, 3/32 120. अमितगति श्रावकाचार, 13/88 121. मूलाचार, 409, 970 122. Yoga of the Saints, P.64 123. Yoga of the Saints, P.65
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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