Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
के गर्त से मन को आत्मा के स्तर पर ले जाता है;"111 जो अनासक्ति का शिक्षण देता है; उदात्त मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करता है
और सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव विकसित करने में सहयोग करता है।112 स्वाध्याय को इस प्रकार के ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय साधक में इन्द्रियसंयम की भावना को जगाता है तथा उसके कारण ही तीन गुप्ति का पालन किया जाता है, मानसिक एकाग्रता प्राप्त की जाती है और नम्रता उत्पन्न की जाती है।113 स्वाध्याय से उत्पन्न ज्ञान मार्गच्युत होने से बचाता है जैसे धागा सुई को खोने से बचाता है।114
कुन्दकुन्द स्वाध्याय के महत्त्व को बताते हुए कहते हैं कि यह मोह को नष्ट करने में काम आता है।115 पूज्यपाद के अनुसार स्वाध्याय का उद्देश्य बुद्धि को समृद्ध करना; नैतिक और आध्यात्मिक प्रयत्न को परिष्कृत करना; अनासक्ति की भावना को उत्पन्न करना; सांसारिक दुःखों से भयभीत करना; तपों के पालन में विकास करना और उन दोषों को शुद्ध करना जो दिव्य मार्ग पर चलने में बाधक होते हैं।।16 अकलंक के अनुसार स्वाध्याय से तीर्थंकरों के उपदेशों का प्रचार होता है, अपने व साधर्मियों के संदेह समाप्त होते हैं और अपने सिद्धान्तों पर आक्रमण से बचाव होता है।17 स्वाध्याय से मन की चंचलता और बुद्धि की 111. Yoga of the Saints, P.66 112. मूलाचार, 267, 268 113. मूलाचार, 410, 969 114. मूलाचार, 971 115. प्रवचनसार, 1/86 116. सर्वार्थसिद्धि, 9/25 117. राजवार्तिक, 9/25
(90)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152