Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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एक बेहोश आदमी की तरह होती हैं या हाथी के स्नान की तरह होती हैं या अंधे आदमी के द्वारा रस्सी गूंथने की तरह होती हैं क्योंकि चतुर से चतुर व्यक्ति भी गृहस्थ स्तर पर कभी प्रशंसनीय कार्य करता है और कभी चरित्रहीन क्रियाएँ करता है और कभी मिली-जुली क्रियाएँ करता है।” अतः परवर्ती दो प्रकार की क्रियाएँ शुद्धीकरण के मार्ग को जो रहस्यवादी के द्वारा पालन किया जाता है उसको अवरुद्ध करती हैं। परिणामस्वरूप गृहस्थ जीवन का त्याग रहस्यवादी के विकास के लिए आवश्यक कहा गया है।
हम पहले ही बता चुके हैं कि गृहस्थ अपने आपको मुनिरूप में परिवर्तित करने के लिए सूक्ष्म पापों को शनैः-शनैः त्यागता है जिसके फलस्वरूप वह पाप प्रवृत्तियों को छोड़ता है और आत्मसंयम धारण करता है। यद्यपि प्रमाद अभी भी मुनि के जीवन में उपस्थित है तो भी यह प्रमाद उसके आत्मसंयम को नष्ट नहीं करता है, वह केवल मुनि के जीवन में थोड़ी-सी विकृति उत्पन्न करता है, अतः यह प्रमत्तविरत गुणस्थान कहलाता है क्योंकि यहाँ प्रमाद आत्मसंयम के साथ विद्यमान होता है। दूसरे शब्दों में, इस गुणस्थान में आत्मा आत्मसंयम का पालन करते हुए भी थोड़ा प्रमाद दर्शाता है।100 इस गुणस्थान में आत्मा मुनि जीवन के लिए आवश्यक सारे अनुशासन का पालन करता है 101 फिर भी यह गुणस्थान शुद्धीकरण के मार्ग की समाप्ति समझा जा सकता है।102 97. आत्मानुशासन, 41 98. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 176 99. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 175 100. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 32 101. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 33 102. Mysticism, P.381
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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