Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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चारित्रमोहनीय कर्म के कारण साधक अतीन्द्रिय प्रयास में असमर्थ रहता है। अब जाग्रत आत्मा की उत्कट इच्छा उन सब चीजों को समाप्त करने की है जो आत्मा और लोकातीत आत्मा के बीच अवरोध करती हैं। दूसरे शब्दों में, रहस्यवादी साहस लोकातीत श्रद्धा और लोकातीत जीवन में और प्रथम ज्योति और अंतिम ज्योति के मध्य जो विषमता है उसको नष्ट करने में है। रहस्यवादी की शेष यात्रा सम्यक् संकल्प और सम्यग्ज्ञान रूपी प्रकाश से उन सब कठिनाइयों को जो उसके नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग में अवरोधक हैं, हटाने में है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि जिन्होंने मिथ्यात्व नष्ट कर दिया है और जिन्होंने 'मार्ग' को समझ लिया है और जो संकल्प शक्ति रखते हैं वे मार्ग पर चलने में समर्थ होते हैं। 90
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वह आचार जो बौद्धिक अज्ञान से उत्पन्न होता है, उपयुक्त मार्ग नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आचार का पालन 'मार्ग' की समझ से ही उपयुक्त कहा गया है।" हमें यह नहीं समझना चाहिये कि बौद्धिक स्पष्टता और चारित्रिक जीवन यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से भिन्न-भिन्न हैं वे व्यवहार में भी भिन्न ही होंगे। सच तो यह है कि वे व्यावहारिक जीवन में एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं है। जैनागम में कहा है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक दूसरे से कार्य-कारण रूप से संबंधित होते हैं जैसे प्रकाश और दीपक । 2 सम्यग्दर्शन बौद्धिक ज्ञान को सही दिशा में मोड़ने के लिए सशक्त होता है, इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि बौद्धिक प्रयत्न आवश्यक
90. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 37
91. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 38
92. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 34
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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