Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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आत्मा का अंधकारकाल या मिथ्यात्व गुणस्थान (2) आत्मजाग्रति और उससे पतन (3) शुद्धीकरण (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था (5) ज्योति के पश्चात् अंधकार काल और (6) लोकातीत जीवन। (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारकाल या मिथ्यात्व गुणस्थान
दुःख के कारण संसारी आत्मा अनवरत असंतोष और अशान्ति की स्थिति में रहता है उसका कारण अनादिकाल से चला आ रहा मोहनीय कर्म है जो मानसिक अवस्था में 'मोह' उत्पन्न करता है। 'मोह' की यह अवस्था, जो आत्मा के दृष्टिकोण को विकृत कर देती है और उसके परिणामस्वरूप चारित्र को रहस्यवादी अनुभव की प्राप्ति में अहितकर बना देती है (वह) मिथ्यात्व और कषाय की अवस्था है। प्रारंभ में हम मिथ्यात्व के स्वरूप और कार्य की व्याख्या करेंगे और इसके विभिन्न भेदों को समझायेंगे। कषाय के स्वरूप पर आगे विचार करेंगे।
मिथ्यात्व हमारी दृष्टि को अनुचित दिशा में इस तरह से मोड़ देता है कि चरम मूल्यों में विकृत श्रद्धा या अश्रद्धा उत्पन्न हो जाती है।32 मिथ्यात्व का यह प्रभाव इतना दृढ़ होता है कि आत्मा का उचित मार्ग की ओर झुकाव नहीं होता है जिस प्रकार पित्त ज्वर से ग्रसित व्यक्ति को मधुर रस अच्छा नहीं लगता। दूसरे शब्दों में, मिथ्यादृष्टि आत्माएँ अनुचित मार्ग की ओर झुकी हुई होती हैं। तात्त्विक दृष्टिकोण से सोचने पर हम कह सकते हैं कि आत्मा जिसने यथार्थ दृष्टि को नहीं
32. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 163, गाथा 107 33. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 17 34. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 162
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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