Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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के ये भिन्न-भिन्न रूप एक से हैं और एक कहने पर शेष उसमें सम्मिलित हो जाते हैं। यदि हम स्पष्ट करें तो अरिहंत और सिद्ध देवों की श्रेणी में सम्मिलित हैं, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु कहलाते हैं और अरिहंत के द्वारा प्रदत्त उपदेश धर्म या शास्त्र कहलाता है। रहस्यात्मक अनुभूति के दृष्टिकोण से अरिहंत और सिद्ध एक स्तर पर होते हैं किन्तु अरिहंत सदेह रूप से मुक्त हैं और सिद्ध विदेह रूप से, इस तरह सिद्ध उच्च स्तर पर होते हैं। चूंकि अरिहंत को सर्वप्रथम नमस्कार किया जाता है और सिद्धों को उसके पश्चात्- इससे ऐसा लगता है कि सिद्धों के प्रति आदर नहीं दिखाया गया है किन्तु जैनदर्शन की धारणा है कि अरिहंतों के माध्यम से हम सिद्धों को पहचानते हैं और उनके माध्यम से ही आप्त, आगम और पदार्थ का ज्ञान हमको हुआ है। अतः ये सर्वप्रथम नमस्कार के योग्य हैं। इस प्रकार अरिहंत लोक-कल्याण के लिए उपदेश देने के कारण पूर्ण गुरु हैं, ये पूर्ण देव भी हैं। अपने अन्दर की दिव्यता का पूर्णतया अनुभव करने के कारण ही जगत में रहस्यात्मक जीवन संभव हुआ है। अत: उनके प्रति हमारी कृतज्ञता और परमादर अत्यावश्यक है। अरिहंत की दोहरी भूमिका
जैनदर्शन में अरिहंत की धारणा की दोहरी भूमिका है- पूर्ण देव और पूर्ण गुरु की भूमिका। आध्यात्मिक अनुभव के दृष्टिकोण से और मानव जाति के कल्याण के उपदेश के दृष्टिकोण से दोनों भूमिका ही संगत हैं। गुरुत्व का संबंध अन्तर्दृष्ट्यात्मक अनुभव की बाहरी अभिव्यक्ति से है जब कि देवत्व केवल आत्मा के अंतरंग आत्मानुभव को दर्शाता है। इस प्रकार अर्हत् की धारणा देवत्व और गुरुत्व के तादात्म्यकरण की
63. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 53
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