Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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विषय है। हमने पूर्व में आत्मजाग्रति के स्वरूप पर विचार कर लिया है।* अब हम उसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया के बारे में विचार करेंगे। (2) सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति या आत्मजाग्रति या अविरतसम्यग्दृष्टि
गुणस्थान
___सम्यग्दर्शन की प्राप्ति या आत्मजाग्रति कभी-कभी उन लोगों के उपदेश से होती है जिन्होंने अपने जीवन में दिव्यत्व अनुभव कर लिया है या परमात्मानुभव के मार्ग पर हैं और कभी-कभी आत्मा को बिना किसी बाह्य उपदेश के अपनी आध्यात्मिक संपदा की स्मृति हो जाती है। दोनों स्थिति में आत्मजाग्रति उपदेश से उत्पन्न होती है। यह उपदेश या तो प्रत्यक्ष हो सकता है या परोक्ष। अत: उपदेश का महत्त्व सर्वोपरि है, चूंकि जिस आत्मा में आत्मजाग्रति उत्पन्न हुई है उसने वर्तमान जन्म में या किसी पूर्व जन्म में उपदेश सुना होगा। वह व्यक्ति जिसने अनादिकाल से उपदेश नहीं सुना है वह आत्मजाग्रति के लिए समर्थ नहीं होता और जिसने पूर्व जन्म में उपदेश प्राप्त कर लिया है वह वर्तमान में बिना किसी उपदेश के जाग्रत हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उपदेश नहीं टाला जा सकता। उपदेश के साथ-साथ आत्मा की मुक्ति के लिए उचित 'समय' होना आवश्यक है। योगीन्दु बताते हैं कि आत्मा के द्वारा अन्तर्दृष्टि प्राप्त की जाती है जब उपयुक्त अवसर पर मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है।
___ योगसार में कहा है कि आत्मा उस समय तक अपवित्र स्थानों को जाता है और दुष्कर्म करता है जब तक वह गुरु के प्रसाद से परमात्मा
* (खण्ड-1, अध्याय-तीन) 55. तत्त्वार्थसूत्र, 1/3 56. परमात्मप्रकाश, 1/85
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