Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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अपनाया है बल्कि अशुद्ध पर्यायों में लीन है (वह) परसमय या मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
हमने यह बताया है कि मिथ्यात्व ज्ञान और चारित्र को विकृत कर देता है। इसकी उपस्थिति में ज्ञान और चारित्र कितने ही विस्तृत हों
और नैतिकता से व्याप्त हों तो भी हमको रहस्यवाद की भव्य ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए अशक्त होते हैं। परिणामस्वरूप आत्मा के इतिहास में घोर अंधकार का काल वह है जब आत्मा मिथ्यात्व से ग्रसित होता है। यह हमारे सभी रहस्यवादी प्रयत्नों को अवरुद्ध कर देता है। एकेन्द्रिय जीवों से असंज्ञी (मनरहित) पंचेन्द्रिय तब तक मिथ्यात्वरूपी जहर का शिकार होता है जब तक वह संज्ञी (मनसहित) पंचेन्द्रिय रूप में उत्पन्न नहीं होता है। यह आश्चर्यजनक है कि इन संज्ञी (मनसहित) पंचेन्द्रिय जीवों में कुछ ऐसे होते हैं जो कभी भी इस घोर अंधकारमय काल को जीत नहीं सकेंगे। अत: वे कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेंगे। जैन शब्दावली में वे 'अभव्य' कहलाते हैं। इस प्रकार वे सदैव विविध प्रकार के जन्म-मरण के अधीन होते हैं और अन्तहीन दुःखों के शिकार रहते हैं।
मिथ्यात्व का भौतिक प्रतिरूप दर्शनमोहनीय कर्म है। मिथ्यादृष्टि की प्रवृत्ति पर्यायों में लीन होने की बनी रहती है। मिथ्यात्व से भ्रमित होने के कारण आत्मा अपने आपका रंग, शरीर, लिंग, जाति, मत और धन से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। "इसके प्रभाव में मिथ्यादृष्टि धर्म को अधर्म मानता है, मार्ग को अमार्ग मानता है, जीव को अजीव 35. प्रवचनसार, 1/1,2 36. समयसार, 275 अमृतचन्द्र की टीका सहित 37. परमात्मप्रकाश, 1/77 38. परमात्मप्रकाश, 80-83
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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