________________
विश्वास करना जैसी वह नहीं है, विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है। (3) संशय- जीवन के चरम मूल्यों की ओर संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना संशय मिथ्यात्व है।6 (4) वैनयिक- उचित और अनुचित दोनों का आदर करना वैनयिक मिथ्यात्व है।” (5) अज्ञान- उन वस्तुओं के प्रति जो ऊर्ध्वगामी दिशा की ओर ले जाती हैं और वे वस्तुएँ जो अधोगामी दिशा की ओर ले जाती हैं उनमें विवेक न करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
पूज्यपाद के अनुसार मिथ्यात्व दो प्रकार का भी होता हैजन्मजात (नैसर्गिक) और अर्जित (परोपदेशपूर्वक)। पूर्ववर्ती पदार्थों या तत्त्वों में जन्मजात अश्रद्धा से उत्पन्न होता है। परवर्ती दूसरे के उपदेश के विकृत दृष्टिकोण के प्रभाव से (अ-तत्त्वों में विश्वास से) उत्पन्न होता है। इन दोनों में भेद यह है कि प्रथम प्रकार का मिथ्यात्व असंज्ञी (मनरहित-अतार्किक) स्तर पर भी संभव है, जब कि दूसरे प्रकार का मिथ्यात्व संज्ञी (मनसहित-तार्किक) पंचेन्द्रिय मनुष्यों में ही होता है। दूसरे शब्दों में, विकसित बुद्धिवाले प्राणी (संज्ञी) बाहरी विकृत
दृष्टि को ग्रहण कर लेते हैं, जब कि अविकसित बुद्धिवाले प्राणी " (असंज्ञी) तत्त्वों में जन्मजात अश्रद्धा में ही जीते हैं।
45. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 46. . सर्वार्थसिद्धि, 8/1 47. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 48. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 49. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 50. सर्वार्थसिद्धि, 8/1 51. सर्वार्थसिद्धि, 8/1
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
(73)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org