Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनधर्म में जीवन-चर्या दो प्रकार से प्रस्तावित की गई है। एक जीवन-चर्या तो साधु के लिए है जिसने सांसारिक बंधनों को तोड़ दिया है और दूसरी गृहस्थ के लिए है जिसके ऊपर कई सामाजिक उत्तरदायित्व हैं। साधुओं और गृहस्थों के कर्त्तव्यों के प्रतिपादन के लिए जैनधर्म में अत्यधिक मात्रा में साहित्य विकसित हुआ है। आधारभूत निर्देशन और दण्डात्मक नियंत्रण ने साधुओं और गृहस्थों को सम्यक्चारित्र पर चलने के लिए सहायता की है। आशाधर का धर्मामृत (1240 ईस्वी के बाद), दो प्रकार के आचार को एक इकाई में प्रस्तुत करने का संभवतः सुन्दर प्रयास है। जैन साहित्य में साधु के जीवन से संबंधित शोधप्रबन्ध प्रचुर मात्रा में हैं। संक्षिप्त सर्वेक्षण के लिए कोई भी व्यक्ति S. B. Deo द्वारा लिखित (History of Jaina Monachism, Deccan College, Poona 1956) का उपयोग कर सकता है। गृहस्थों के लिए प्रतिपादित आचार का आलोचनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन आर. विलियम्स द्वारा लिखित जैन योग (Oxford University Press, Oxford 1963) नामक उत्तम निबन्ध में प्राप्त होता है। इसके लिए कोई भी व्यक्ति दूसरे स्रोत जैसे-वसुनन्दि श्रावकाचार (संपादक हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस 1952), उपासकाध्ययन (संपादक कैलाशचन्द्र शास्त्री, बनारस 1964), और एम. मेहता द्वारा लिखित जैन आचार (वाराणसी 1966) का भी अध्ययन कर सकता है।
प्रस्तुत कृति में डॉ. के. सी. सोगाणी ने जैनधर्म के आचारसम्बन्धी सिद्धान्तों के सम्पूर्ण आयामों का उत्कृष्ट सर्वेक्षण करने का प्रयास किया है। जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कुछ टिप्पणियाँ प्रस्तुत करने के पश्चात् (I) वे तात्त्विक आधार को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं जिस पर जैन आचार का भवन विस्तृतरूप से निर्मित है (II-III)
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