Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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(बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षा), (9) कर्मों के इहलोक और परलोक के दुःखों का प्रेरक (आस्रव - अनुप्रेक्षा ), ( 10 ) कर्मों को रोकने की विधि का प्रेरक ( संवर- अनुप्रेक्षा ), ( 11 ) कर्मों को हटाने की विधि का प्रेरक (निर्जरा - अनुप्रेक्षा) और (12) जिनदेव द्वारा धर्म का उपदेश देने का प्रेरक (धर्म - अनुप्रेक्षा ) - ये सब विपत्तिग्रस्त सांसारिक जीवन से बच निकलने के लिए प्रेरक हैं। इनमें से अंतिम तीन हमारे लिए उच्च जीवन को प्राप्त कराने के लिए ऊर्जा को सही दिशा में प्रवाहित करते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रथम नौ अनुप्रेक्षाएँ निषेधात्मक प्रेरक हैं और अंतिम तीन सकारात्मक प्रेरक हैं। पूर्ववर्ती सांसारिक मनुष्य के जीवन को प्रस्तुत करती हैं जब कि परवर्ती साधक के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए व्यावहारिक मार्ग प्रस्तुत करती हैं ।
अनुप्रेक्षा का अर्थ है अनुचिंतन' अर्थात् पुनरावृत्त्यात्मक चिंतन | पूज्यपाद के द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र की टीका में अनुप्रेक्षा का अर्थ है, शरीर आदि के स्वरूप का आद्योपान्त चिन्तन ।' कार्तिकेयानुप्रेक्षा विकास की ओर ले जानेवाले उदात्त सिद्धान्तों पर चिन्तन के रूप में अनुप्रेक्षा को प्रतिपादित करती है ।' दोनों में भेद का कारण है कि पूर्ववर्ती विवरण निषेधात्मक प्रेरकों पर जोर देता है जब कि परवर्ती सांसारिक अशान्ति से बचने का उपाय बताता है अर्थात् सकारात्मक प्रेरकों पर जोर देता है। अनुप्रेक्षाएँ आध्यात्मिक विकास में सहायक होती हैं। ये साधक को कषायों के क्षेत्र से वैराग्य की ओर ले जाती हैं। ये अनुप्रेक्षाएँ भावों की शुद्धि प्राप्त करने के लिए, मोक्ष की इच्छा उत्पन्न करने के 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/7
3. सर्वार्थसिद्धि, 9/2
4.
5.
(4)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 97
ज्ञानार्णव, 2/6
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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