Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02 Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain Publisher: Jain Vidya SamsthanPage 50
________________ अंतरंग और बाह्य स्वरूप का अंगीकार अंतरंग और बाह्य स्वरूप को उत्कृष्ट गुरु के संरक्षण में ग्रहण करने के पश्चात् प्रस्तावित अनुशासन की प्रक्रिया को प्राप्त करके साधक श्रमण बन जाने का सम्मान प्राप्त कर लेता है। 2 चूंकि वह आध्यात्मिक यात्रा के प्रारंभ में अनवरत रूप से आत्मिक अनुभव में नहीं ठहर सकता इसलिए वह अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करता है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, लोच (केशलोंच), षट् आवश्यक, अचेलकत्व (वस्त्ररहितपना ), अस्नान ( स्नान नहीं करना), भूमिशयन (जमीन पर सोना ), अदंतधावन ( दातुन न करना), खड़े होकर भोजन करना ( स्थितिभोजन) और एक बार आहार लेना (एकभक्त)। 53 गृहस्थ की अपेक्षा मुनि - जीवन की श्रेष्ठता गृहस्थ के अणुव्रतों की आंशिकता मुनि के जीवन में समाप्त हो जाती है, अतः मुनि महाव्रतों का पालन करता है। दूसरे शब्दों में, गृहस्थ के जीवन में अणुव्रतों के कारण अशुभ भाव होते हैं महाव्रतों के पालन करने से वे विलीन हो जाते हैं और केवल शुभ भाव शेष रहते हैं जो भी रूपान्तरित हो जाते हैं जैसे ही आत्मा के क्षेत्र में उड़ान भरी जाती है। दूसरे शब्दों में अशुभ आस्रव जो कि तीव्र कषायों की उपस्थिति के कारण होते हैं वे रुक जाते हैं और आत्मा प्रथम बार ही अशुभ कर्मों के आस्रव के अवरोध का अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त गृहस्थ के 52. प्रवचनसार, 3/7 53. प्रवचनसार, 3/8, 9 मूलाचार, 2, 3 आचारसार, 16 अनगार धर्मामृत, 9/84, 85 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (15) www.jainelibrary.orgPage Navigation
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